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[ २५७ ] आत्मा सज्जन पुरुष होते हैं सो तो अपनी भूलको मंजूर कर दूसरेकी हितशिक्षारूप सत्य बातको प्रमाण करके उपकार मानते हुए सुख शान्तिसें संप करके वर्तते हैं और मिथ्यात्वी होते है सो सत्य बातकी हितशिक्षाको कहनेवाले पर क्रोधयुक्त हो कर अपनी भूलको न देखते हुए अन्यायसें झगड़े का मूल खड़ा करनेके लिये (हितशिक्षाको ग्रहण नही करते हुए ) एककी दो सुमाकर रागद्वेषसे विसंवाद करते हैं तैसेही छठे महाशयजीने भी एककी दो मुनानेका दिखाया परन्तु शास्त्रार्थसे न्याय पूर्वक सत्य बातको ग्रहण करने की तो इच्छा भी न रख्खी, इस बातको दीर्घ दृष्टि से सज्जम पुरुष अच्छी तरहसे विशेष विचार सकते हैं,-- ___ और सरकारी कानून कायदेका छठे महाशयजीने लिखा है इस पर भी मेरेको यही कहना पड़ता है कि प्रथम झगड़ा खड़ा करनेवाले और दूसरोंको मिथ्या दूषण उगानेवाले तथा मायावत्तिकी धूर्ताचारीसें वक्रोक्तिकरकेपण्डिताभिमानसें मनुचित शब्द लिखनेवाले और खानगी में न्याय रीतिसें पूछने वालेको प्रसिद्धी में लाकर उसीको अयोग्य ओपमा लगाके अवहेलना करने वाले आप जैसोंको हितशिक्षा देने के लिये तो जरूर करके सरकारी कानून तैयार हैं परन्तु आप साधुपदके भेषधारी हो इसलिये सज्जन पुरुष ऐसा करना उचित नहीं समझते
सपापि आप तो उसीके योग्य हो-महाशयजी याद रस्तो-सरकारके विरुद्ध चलनेसें इसीही भवमें जलविशिक्षा मिलती है तैसेही श्रीजिनेबर भगवानको . आचाके विरुद्ध चलने वाले उत्सूत्र भाषकको भी इस भवमें लौकिकमें तिर
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