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[ ६६ ] दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिकामें तीसरे श्रीविनय विजयजीने श्रीसुखबोधिकामें चौथे न्यायांभोनिधिजी श्री. आत्मारामजीने जैन सिद्धान्तसमाचारी नामा पुस्तकमें पांचवें। न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्म संहिता पुस्तकमें छठे श्रीवल्लभविजयजीने वर्तमानिक जैन पत्र द्वारा सातवें श्रीधर्मविजयजीने पर्युषणा विचारनामकी छोटीसी २० पृष्ठकी पुस्तकमें और आठवा श्रावक भगुभाई फतेचंदने भी पर्युषणा विचार नामका लेख खास जैन पत्रके २३ में अङ्कके आदिमें । इन सबीमहाशयोंने जैन शास्त्रों के अति गम्भिरार्थका तात्पर्य गुरुगमसे समझे विना श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके तथा खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्यों के भी विरुद्ध होकर शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप अधूरे अधूरे पाठ लिखके (परभवका भय न रख्खते मिथ्या) अपनी अपनी इच्छानुसार अधिक मास की गिनती निषेध सम्बन्धी अनेक तरहके विकल्प श्रीखरतरगच्छादिवालोंके ऊपर आक्षेपरूप किये है।
जितको पढ़ने से भोले जीवोंकी श्रद्धा भङ्ग होनेका कारण जानके निर्पक्षपाती आत्मार्थी जिनाज्ञाके आराधक सत्यग्राही भव्य जीवोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखानेके लिये उपरोक्त महाशयोंके लिखे हुए लेखोंकी समालोचनारूप समीक्षा शास्त्रानुप्तार तथा ग्रन्थकार महाराजके अभिप्राय सहित और युक्तिपूर्वक लिख दिखाता हूं---
प्रश्नः-तुम उपरोक्त महाशयोंके लिखे हुए लेखोंकी समीक्षा करोगें जिसमें जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तक श्रीआत्मारामजी की बनाई हुई नहीं है किन्तु उनके शिष्य
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