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विज्ञापन नं ०९
न्यायरत्नजी शांतिविजयजी हार गये !
सत्याग्राही पाठकगणसे निवेदन कियाजाताहै, कि - न्यायरत्नजी शांतिविजयजी को पर्युषणा बाबत सभा में शास्त्रार्थ करनेके लि ये मैंने विज्ञापन नं.७ वेंमें सूचना दीथी, उसमें १५ दिनके भीतर शास्वार्थ करना मंजूर न करोंगे, तो आपकी हार समझी जावेगी, यह बात खुलासा लिखीथी. और वैशाख शुदी १०को विज्ञापन नं. ७-८ के साथ १ पत्रभी उनको डाक मारफत रजिष्टरी द्वारा 'ठाणे' भेजाथा, उसमें १५ दिनकी जगह २० दिनका करार लिखाथा, उसको आज २२ दिन होगये, तो भी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करना मंजूर नहींकिया और वैशाख शुदी १३ को फिरभी दूसरा पत्र भेजाथा उसमें हमने ठाणेही शास्त्रार्थ करना मंजूर कियाथा. उसकाभी कुछभी उत्तर न मिला और लेखद्वारा शास्त्रार्थ शुरू करने के लिये प्रतिज्ञापत्र व साक्षी वगैरह नियमभीप्रगटनहीं किये. इससे मालूम होता है कि, न्यायरत्नजी में न्यायानुसार धर्मवादका शास्त्रार्थकरनेकी सत्यता नहीं है, इसलिये चुप लगाकर बैठे हैं, उससे वो हारगये समझे जाते हैं. पाठकगणको मालूम होनेके लिये दोनों पत्रोंकी नकल यहां बतलाते हैं.
प्रथम पत्रकी नकल " श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी विज्ञापन नं० ७-८ भेजता हूं. लघुपर्युषणा निर्णयके सत्य सत्य लेख छोडदिये और मैंरे अभिप्रायविरुद्ध उलटा उलढाही लिखमारा, वैसा अब न करना. सबका पूरा उत्तर देना, आजसे १५-२० दिन तकमें वैशाख शुदी १० सोमवार. हस्ताक्षर मुनि - मणिसागर. "
दूसरे पत्रकी नकल "श्रीठाणा मध्ये न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्रीमुंबई से मुनि-मणिसागरकी तरफ ले सूचना.
१- आप ठाणेमें शास्त्रार्थं करना चाहते हो तो, हम ठाणे भा नेकोभी तैयार हैं. मगर विज्ञापन नं० ६ की ३-४-५ सूचना मुजब नियम मंजूरकरो और कल्पसूत्रकी कौन२ प्राचीनढीका आप मानते हो उत्तर दो, ठाणेकी कोटवाली में शास्त्रार्थ होगा.
२ - शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघको व आगेवानोंको बीचमें लाने की कोई जरूरत नहीं है, आप संघको बीच में लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीच में पड़े और न हमारी पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो.
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