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इतनाही कहना है कि ५० दिने पर्युषणा करने की बुद्धि तो फिर जानते हुवे भी तीसरे अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के अधिकारी क्यों बनके पञ्चाङ्गीका प्रमाण पूछकर के भोलेजीवों को संशयरूपी मिथ्यात्वका भ्रममें गेरे है और अधिकमास की गिनती निश्चय करके स्वयं सिद्ध हैं सो कदापि निषेध नहीं हो सकती है जिसका खुलासा इस ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है इसलिये दो श्रावण होते भी ८० दिने भाद्रपद में अथवा दो भाद्रपद होनेसे भी ८० दिने दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा अपनी मति कल्पनासें श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध क्यों करते है क्योंकि पचासवें दिनको रात्रिको भी उल्लङ्घन करनेवालेको शास्त्रों में आज्ञा विराधक कहा है इसलिये ८० दिने पर्युषणा करनेवाले अवश्यही आज्ञाके विराधक है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है और ८० दिने पर्युषणा करनेका कोई भी श्रीजेनशास्त्रों में नहीं लिखा है परन्तु ५० दिने पर्युषणा करनेका तो पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंमें लिखा है सो इसीहीं ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है तथापि दंभप्रियजी ने अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में ५० दिने पांच कृत्योंसें पर्युषणा वार्षिक पर्व करने संबंधी पंचांगका पाठ पूछके भोले जीवोंको भ्रममें गेरे है सो दंभप्रियेजीके मिथ्यात्वका भ्रमको दूर करनेके लिये और मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इस जगह मेरेको इतनाही कहना है कि-श्रीकल्पसूत्र के मूलपाठ में ५० दिने पर्युषणा करनी कही है इसलिये श्रावणमासकी वृद्धि होनेसें दूसरे श्रावण में अथवा भाद्रपदना सकी वृद्धि होने सें प्रथम भाद्रपदमें जहां ५०दिन पूरे होवे वहांही प्रसिद्ध पर्युषणा में
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