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________________ [ २३८ ] विचार करना चाहिये कि न्यायरबजी आप स्वयं दोनु श्रावण मासकी हकीकत जूदी जूदी लिखते है फिर गिनती निषेध भी करते है यह तो ऐसे हुवा कि ममजनमी बन्ध्या अथवा मम वदने जिट्टा नास्ति, इस तरहसे बाललीलावत् न्यायरत्नजी विद्याके सागर हो करके भी कर दिया हाय अफसोस, अब इस जगह मेरेको लाचार होकर लिसना पड़ता है कि न्यायरबीजीकी विद्वत्ताको चातुराई किस देशके कोणेमें चली गई होगा सो पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसें किये बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनती में प्रमाण करके तेरह मासका अभिवर्द्धित संवत्सर अनेक सिद्धान्तों में कहा है जिसके उत्यापनका भय म करते उलटा अधिक मासको गिनती करने वालोंको मायावृत्तिसें मिथ्या दूषण लगादिये और फिर आपभी अधिक मासको प्रमाण करके लोगों में ज्योतिषशासके वि. द्वान् भी प्रसिद्ध होते है परन्तु अधिक मासको गिनतीमें करनेवालोंको मिथ्या दूषण लगानेका और पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप मिथ्या वाक्यके फल विपाकका जरा भी भय नही करते है इसलिये जैन शास्त्रानुसार तो दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेके और विसंवादी भाषणके कर्मबन्धकी आलो. चनाके लिये बिना अथवा भावान्तरमें भोगे बिना कूटना बहुत मुश्किल है सो जैन शास्त्रोंका तात्पर्यके जानकार विवेकी पुरुष स्वयं विचार सकते है और न्यायरनजीको भी उत्सूत्र भाषणका भय हो तो न्याय दृष्टि में तत्वार्थको अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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