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[ २४६ ] खरतर गच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मन:कामना पूर्ण न होनेसे, रावणके समान हुँढियांका सरणा लेकर सुद्धारंभ करमा चाहा है।]
. - पाठकवर्गकों छठे महाशमजी श्रीवालमविजयजीके उपर का लेखकी समालोचनारुप समीक्षा करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो मेरेको इतना ही कहना उचित है कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभाविजयजी साधु नाम पारक होकर सास आप झगड़े का मूल सड़ा करके दूसरेको दूषित करना और अन्याय कारक माया वृत्तिका मिथ्या भाषणसे आप निर्दूषण बनना चाहते है तो सर्वथा अनुचित हैं क्योंकि प्रथम ही आपने (शास्त्रकारोंकी रीति मूजब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार आषाढ़ चौमासीसें पचास दिने प्रावणवृद्धिके कारणसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंकों) आज्ञाभङ्ग का दूषण लगा के जैन पत्रमें छपवा कर प्रगट कराया तब श्रीलश्करसें श्रीबुद्धिसागरजीने आपकों खानगीमें शास्त्रका प्रमाण पूछा पा उन्हीकों शास्त्रका प्रमाण आप खानगीमें पीछा नही लिख सके और अन्यायकी रीतिसे उलटा रस्ता पकड़के सानगीको वार्ताको प्रसिद्धीमें लाकर कृथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और अङ्गी चमार सूर्पनखा वगैरह अनुचित शब्दोंको लिखके विशेष झगड़ेका मूल सड़ा करके भी आप निर्दूषण बनकर अपने अन्यायको न देखते हुए और शाखके पाठकी बात न्याय रीतिसें पूछने वाले को दूषित ठहराते हुए अपने योग्यता मानक शब्द प्रगढ़ किये याने लौकिकमें कहते हैं कि जैसी होवे कोठे, वैसी
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