________________
[ ४३४ ]
और धर्मसागर जी वगैरह जो जो लेख लिख गये हैं और वर्तमनमें 'शास्त्रविशारद जैनाचार्य्य'' की उपाधिधारक सातवें महाशयजी श्रीधर्म विजयजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् कहलाते भी उसी अन्धपरम्परासे मिध्यात्व के कदाग्रहको पकड़कर अज्ञ जीवोंको उसीमें फसानेके लिये उसीको विशेष पुष्ट करनेका उद्यम करते हैं परन्तु श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाका उत्थापन करके प्रत्यक्ष पञ्चाङ्गी प्रमाण विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से सज्जन पुरुषोंके आगे हास्य काहेतु करनेका कारण करते भी कुछ लज्जा नहीं पाते हैं सो तो इस कलियुगमें पाखण्ड पूजा नामक अच्छेरेका प्रभावही मालूम पड़ता है । इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषको ऐसे उत्सूत्र भाषकोंकी कुयुक्तियों के भ्रममें न पड़ना चाहिये और निष्पक्षपात से इस ग्रन्थको आदिसे अन्त तक बांचकर असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण भी करना चाहिये परन्तु गच्छके आग्रहसे उत्सूत्र भाषणकी बातोंको पकड़कर उसीमें नहीं रहना चाहिये ।
और भी श्रीधर्मसागरजीकी तथा श्रीविनयविजयजीकी धर्मघई का नमूना पाठक वर्गको दिखाहूं, कि देखो श्रीविनयविजयजीने श्रीलोकप्रकाश मामा ग्रथ बनाया है सो प्रसिद्ध है उसीमें अधिक मासको गिनती प्रमाण करी है अर्थात् समयादि सुक्षमकालसे आव foot मुहूर्तादिककी व्याख्या करके ३० मुहूतौंका एक अहोरात्रि रुप दिवस, सो १५ दिवसांस एकपक्ष, दो पक्षोंसे एक मास वारह मासोंसे चन्दसंवत्सर और अधिक मास होनेसे तेरह मासोंका अभिवर्द्धित संवत्सर इन पांचों संवत्सरों से
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com