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चैमासीसे पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्योंकी आज्ञा है । इस तरहसें तीनों महाशयोंनें चार प्रकार से खुलासा लिखा है इस पर बुद्धिजन पुरुष तस्वग्राही होके विचार करो कि प्राचीनकालमें पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते दशवें पञ्चकमें पचास दिने मासवृद्धिके अभाव से जैन पञ्चाङ्गानुसार भाद्रपद शुक्लपञ्चमी परन्तु श्रीकालकाचार्य्यजी से चतुर्थीको पर्युषणा होती है परन्तु अब लौकिकपञ्चाङ्गमें हरेक मासकी वृद्धि होने से श्रावण भाद्रपदादि मास भी बढ़ने लगे इसलिये मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्यों की आज्ञा हुई तब मासवृद्धि होते भी भाद्रपद में ही पर्युषणा करनेका निश्चय नही रहा किन्तु दो श्रावण होनेसें दूजा श्रावण में और दो भाद्रपद होनेसें प्रथम भाद्रपद में पचास दिने पर्युषणा करनेका नियम इस वर्त्तमानिक कालमें रहा जिससे दो श्रावण तथा दो भाद्रपद और दो आश्विन मास होनेसें पर्युषणाके पीछाड़ी 90 दिनका भी नियम नही रहा अर्थात् मासवृद्धि होनेसें पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन श्रीतपगच्छकेही पूर्वजोंकी आज्ञानुसार रहते हैं यह तात्पर्य तीनों महाशयोंके लिखे वाक्य परसें सूर्य्यकी तरह प्रकाश कारक निकलता हैं सो न्यायकीही बात है इस बात को अपने पूर्वजोंकी आशातनासे डरनेवाला कोई भी प्राणी निषेध नही कर सकता है तथापि इन तीनों महाशयोंने अपनी विद्वत्ताकी बात जमानेके लिये खास अपनेही पूर्वजोंका उपरोक्त वाक्यको जड़ मूलसेही उठाकर अपने पूर्वजों की आज्ञा लोपते हुवे दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेका और मासवृद्धि
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