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tel " साध्वाश्रयंगत्वा साधूनमस्कृत्य सामायिकं करोति, तत्सूत्र यथा- 'करेमिभंते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जाव. साहू पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं,मणेणं वायाए काएणं,न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि, निंदामि,गरिहामि,अप्पाणं वो. सिरामि' त्ति, एवं कृतसामायिकं इर्यापथिक्याप्रतिक्रामति, पश्चादागमनमालोच्य यथा ज्येष्ठमाचार्यादीन्वंदते, पुनरपि गुरुं वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्टः शृणोति पठति पृच्छति वा" इत्यादि
इनपाठमेभी उपाश्रयमें जाकर साधुमहाराजको वंदना करके पहिले करेमिभंतेका पाठउच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावहीकर के अनुक्रमसे वडील आचार्यादिकोंको वंदनाकर फिर शास्त्र सुने, वांचे या धर्म च की बातें गुरुसे पूछता रहे. ऐसा खुलासा लिखाहै.
४-श्री लक्ष्मीतिलकसरिजीकृत श्रावक धर्म प्रकरण वृत्तिका पाठभी यहांपर बतलाताहूं, सो देखो:
"चैत्यालये विधि चैत्ये, स्वनिशांते स्वगृहे, साधुसमिपे, पौषो-शानादीनां धियते-अस्मिन्निति पौषधं पर्वानुष्ठानं, उपलक्षणत्वा सर्व धर्मानुष्ठानाथे शालागृहं; पौषधशाला तत्र वा, तत् समायिक कार्य श्राध्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । कथं तद्विधिना इत्याह'खमासमणं दाउं, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् सामाइय मुहप. त्तिं पडिलेहेमित्ति भणियं, बीयखमासणपुव्वं सामाइयं ठावित्ति,वुत्तुं. खमासमण दाणपुव्वं अध्धावणगत्तो पंच मंगलं कढ़िता 'करेमिभं तेसामाइयं'इश्चाइ सामाइय सुत्तंभणइ,पच्छा इरियंपडिकमइ,इत्यादि
देखिये-इस प्राचीन पाठमेभी मंदिरमें, अपने गृहमें, साधुपा. स उपाश्रयमै, अथवा पौषधशालामें, जब संसारिक कार्यों से निवृति होवे तब किसीभी समयमे सामायिक करनेका बतलाया है, सो प. हिले खमामणसे आज्ञा लेकर सामायिक मुहपतिकापडिलेहण करके फिरभी दो खमासमणसे सामायिक संदिसाहणेका तथा सामायिक ठाणेका आदेशलेकर विनयसहित करेमिभंतेका पाठ उच्चारण करके पीछेसे इरियावही करनेका खूलालापूर्वक स्पष्ट बतलाया है।
५- इसीही तरहसे श्री हरिभद्रसूरिजीने आवश्यकबृहद्वत्तिमें, श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजीने पंचाशकवृत्तिम, श्रीहेमचंद्राचार्थजीने योगशास्त्रवृत्तिमें इत्यादि अनेक प्रभावक प्राचीन आचार्यों. ने अनेक शास्त्रों में प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे हार भावही करनेका खुलासा पूर्वक स्पष्ट बतलाया है।
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