Book Title: Bruhat Paryushana Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 536
________________ [ ४३२ ] लेखांको प्रगट करके अपनी पूर्ण मूर्खता प्रगट करी और पर्युषणा, सामायिक, कल्याणक, वगैरह बातोंका झगड़ा बढ़ाया है ( जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थके पढ़नेसे मालम हो सकेगा ) इसलिये जैनपत्रवाले आठवें महाशयको जो संसारवद्धिसे दुर्गतिमें परिभ्रमणका भय होवे तो उत्सूत्र भाष. णांका मिथ्या दुष्कृत देकर श्रीचतुर्विध संघ समक्ष उसीकी आलोचन लेवे तथा फिर कभी खण्डन मण्डन करके दूसरों की निन्दासे गच्छका झगड़ान उठावे और असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करे नहीं तो पक्षपातसे उत्सत्रभाषणके विपाक तो भोगे बिना कदापि नहीं छुटेंगे। और मैरेको बड़ेही खेदके साथ बहुतही लाचार हो करके लिखना पड़ता है कि-अधिक मांसके ३० दिनांकी गिनती निषेध करनेवाले उत्सत्र भाषक मिथ्या हठग्राही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वियोंकी विवेक बुद्धि कैसी नष्ट हो गई है सो पूर्वापरका विचार किये बिनाही अधिक मासके ३० दिनों में सर्वकार्य करते भी पक्षपातके आग्रहसे गडरीह प्रवाहकी तरह मिथ्यात्वकी अन्ध परम्परासे एक एककी देखादेखी तात्पर्य्यार्थके उपयोग शून्य होकरके उसीकोही पकड़कर उसीकी पुष्टि करते हैं परन्तु श्रीजिनाज्ञाका उत्थापन करके बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे अपनी आत्मघातका कुछ भी भय नहीं करते हैं क्योंकि पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक और युक्ति सहित श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी जैनाचार्य वगैरह अधिक मासके दिनोंकी गिनती प्रमाण करकेही प्राचीन कालमें पूर्वधरादि महाराज भी पर्युषणा करते थे तथा वर्तमानमेंशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556