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पर भवका और विद्वानोंके आगे अपने नामको हासो करानेका कुछ भी पूर्वापरका विचार न किया, अन्यथा, अन्ध परम्पराके मिथ्यात्वको पुष्टीकारक शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें ऐसे अधूरे पाठ लिखके और कुयुक्तियोंका संग्रह करके बाल जीवोंको सत्य बात परसे श्रद्धा भ्रष्ट करनेके लिये कदापि परिश्रम नहीं करते, सो तो निष्पक्षपाती सज्जनोंको विचार करना चाहिये;
और "जब दो श्रावण आवे तो श्रावण सुदी चौधके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो क्या आग्रह करना ठीक है" यह भी सातवें · महाशयजीका लिखना गच्छपक्षी बाल जीवोंको मिध्यात्व के भ्रममें गेरनेके लिये अज्ञताका अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका सूचक है क्योंकि दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युचणा करना ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिया है तो फिर दो श्रावण होते भी शाद्रपदमें पर्युषणा करनेका वृथा क्यों पुकारते है और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो श्रीकल्पसूत्र के मूलपाठानुसार तथा उन्हीं की अनेक व्याख्यायोंके अनुसार और युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो इसी ग्रन्थकी आदिमेंही विस्तारसे लिखने में आया है और खास सातवें महाशयजी भी श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठकी तथा उसीकी वृत्तिको हर वर्षे पर्युषणामें वांचते हैं उसीमें जैन पचाङ्गके अभाव से "जैनटिप्पनकानुसारेण मतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते च आषाढ एवं वर्द्धते नान्येनामास्तहिप्यनकंतु अधुना सम्यग् न ज्ञायतेऽतः पोश निर्दिनैः पशुबना सङ्गते - मुक्तेति बद्धा:-" ऐसे अक्षर किरणावली वृत्तिमें
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