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महाशयजी उसीकी गिनतीका निषेध करते हैं सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक वृथा है इस बातको पाठकवर्ग भी स्वयं विचार सकते हैं और तीनो महाशयोंने भो ऊपर की बात संबन्धी बाललीलाकी तरह लेख लिखा था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ १४२/१४३ छप गई है सो पढ़ने से विशेष निःसन्देह हो जावेगा ;
और ( जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्रीके प्रति निष्फल है किन्तु लेना लेजाना आदि गृहकार्य्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों ) इन अक्षरों करके सातवें महाशयजीने देवपूजा मुनिदान आवश्यकादि ३० दिनोंमें धर्मकार्य्य होते भी पर्युषणादि धर्मकाय्यौमें ३० दिनों का एक मासको गिनती में निषेध करनेके लिये अधिक मानको नपुंसक ठहरा करके बालजीवोंको अपनी विद्वत्ताको चातुराई दिखाई है सेा तो निःकेवल उत्सूत्र भाषण करके गाढ़ मिध्यात्वते संसार वृद्धिका हेतु किया है क्योंकि श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने जैसे मन्दिरजी के ऊपर शिखर विशेष शोभाकारी होता है उसी तरह कालका प्रमाणके ऊपर शिखररूप विशेष शोभाकारी कालचूलाकी उत्तम ओपमा अधिक मासको दिई है और अधिकमास को गिनती में सामिल ले करकेही तेरह मासांका अभिवर्द्धित संवत्सर कहा है जिसका विस्तारसें खुलासा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ४८ से ६५ तक उपगया है तथापि सातवें महाशयजीने श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घनरूप तथा आशातना कारक और पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़ करके अधिक मासको नपुंसककी हलकी
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