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[ ३९ ] महाशयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं तथापि श्रीजैन शास्त्रों के तात्पर्य समझे बिना अपने कदाग्रहके कल्पित पक्षको स्था. पन करने के लिये वृथाही क्यों उत्सूत्र भाषण करके अपनी अज्ञता प्रगट करी है क्योंकि लौकिक ज्योतिषके गणित मुजब वर्तमानिक पञ्चाङ्गमें तिथियांकी हानी और वृद्धि होनेका अनुक्रमे नियम है और अधिकमासकी तो सर्वथा करके वृद्धि ही होनेका नियम है परन्तु तिथिकी हानी होनेसे १४ दिन का पक्षकी तरह, मासकी हानी होकर ११ मासका वर्ष कदापि नहीं होता है इसलिये तिथिको हानी अथवा वृद्धि हो तो भी दुनियाके व्यवहारमें १५ दिनका पक्ष कहा जाता है जिससे क्षामणे भी १५ दिनके करने में आते हैं
और मासकी तो हानी न होते, सर्वथा वृद्धिही होती है इसलिये दुनियाके व्यवहार में भी तेरह मासका वर्ष कहा जाता है परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासका वर्ष कोई श्री बुद्धिमान विवेकी पुरुष नहीं कहते हैं जिससे मासद्धि होनेसे क्षामणे भी १३ मासकेही करने में आते हैं, परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासके क्षामणे करनेका कोई भी बुद्धिवाले विवेकी पुरुष नहीं मान्य कर सकते हैं। इसलिये तिथियांकी हानि वृद्धि होनेका नियम होनेसे और मासकेसदा वृद्धि होनेका नियम होनेसे दोनका एक सदृश व्यवहार होनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो कदापि नहीं हो सकता है।
और निश्चय व्यवहारादि नय करके श्रीजिन प्रवचन चलता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्गमें १६ दिनका अथवा १४ दिनका पक्ष होते भी व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिन के क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नयकी अपेक्षामे तो
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