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[ ३८२ ] अधिक मासको मानने वालोंके मतमें तो अधिक मास होने से पांच मासहोते भी चार मास कहनेसें पांचवा अधिक मासका प्रायश्चित्त बाकी रह जाता है इसलिये अधिकमास होनेसे पाँच मास जरूर बोलने चाहिये सो तो बोलतेही हैं इसका विशेष निर्णय कपरमें हो गया है, परन्तु पाँच मास होते भी चार मास बोलने में पाँचवा अधिक मासका प्राय. श्चित्त उसीके अन्तर्गत आजानेका ऊपरके अक्षरोंसें सातवें महाशयजीने अपने मतमें ठहरानेका परिश्रम किया है सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना प्रत्यक्ष मायावृत्ति मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये अज्ञ जीवोंको कदाग्रहमें गेरनेका कार्य किया है क्योंकि अधिक मास होनेसें पांचमासके दश पक्ष प्रत्यक्ष में होते हैं और खास सातवें महाशयजी वगैरह भी सब कोई अधिक मासके कारण से पाँच मासके दश पाक्षिकप्रतिक्रमण भी करते हैं फिर पांचमास दश पक्ष नहीं बोलते हैं सो यह तो 'मम वदने जिहा नास्ति' की तरह बाललीलाके सिवाय और क्या होगा से विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेगे;--
और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके पांचवें पृष्ठकी प्रथम पंक्तिसे छट्ठी पंक्ति तक लिखा हैं कि ( अब लौकिक व्यवहार पर चलिए लौकिक जन अधिक मासमें नित्यकृत्य छोड़कर नैमित्तिककृत्य नहीं करते जैसे यज्ञोपवीतादि अक्षयतृतीया दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से पूर्णिमा तक दश लाक्षणिक पर्वमानते है)
ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों श्रीजिनेन्द्र भगवानोंने तो अधिक
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