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[ ३२ ] निजः ॥ तज्ज्ञातं शरणी चक्रे, प्रदत्ता तेनतस्य सा ॥८॥ तेन श्वशुर साहाय्यानिर्जित्यनिजगोत्रजान् ॥ पुनर्लेभे निजं राज्यं, पहराज्ञी बभूव सा ॥ २९ ॥ नित्ति व्यतोभाणि, भावे चोपनयः पुनः ॥ कन्यास्थानीया मुनयो, विषया धर्स सन्निभाः ॥१०॥ योगीति गानाचार्योपदेशात्तेभ्यो निवर्त्तते ॥ सुगते जनं सस्या, दुर्गतेस्त्वपरः पुनः ॥ ११ ॥ __ अब विवेकी तत्त्वज्ञपुरुषोंको इस जगह विचार करना चाहिये कि राज्यकन्या उन्मार्गमें प्रवर्तने लगी तब उसी को समझानेके लिये कविने चातुराईसे दूसरेकी अपेक्षा ठे कर "जइ फल्ला" इत्यादि गाथा कही है सो तो व्याख्याकारोंने प्रगट करके कहा है तथापि सातवें महाशयजी नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायको समझे बिनाही राजकन्याके दृष्टान्तका प्रसङ्गको छोड़ करके बिना संबंधकी एक गाथा लिखके अधिक सासमें वनस्पतिको नहीं फूलनेका ठहराया परन्तु दीर्घ दृष्टिसे पूर्वापरका कुछ भी विचार न किया क्योंकि वसन्त ऋतु मुखसे बोलके आम्र को ओलम्भा देती नहीं, तथा आम सुनता भी नहीं और जैन ज्योतिषके हिसाबसे वसंत ऋतुमें अधिक मास होता भी नहीं, और अधिक मास होनेसे वनस्पतिको कोई उद्घोषणा करके सुनाता भी नहीं है। परन्तु यह तो ग्रन्थकार महाराजने अपनी उत्प्रेक्षारूप चातुराईसे. दूसरेकी अपेक्षा ले करके प्रासङ्गिक उपदेशके लिये कहा है इसलिये वास्तवमें अधिक मासकी उद्घोषणा आम्रको सुना करके वसन्त ऋतुके ओलंभा देने सम्बन्धी नहीं समझना चाहिये क्योंकि वर्तमानिक पञ्चाङ्गमें चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़,
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