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हुवे उलटेही वर्त्तते हैं सो भी बड़ेही आश्चर्य्यकी बात है ।
और यज्ञोपवीत, विवाह वगैरह मुहूर्त निमित्तिक कार्य तो चौमासे में, मलमास में, सिंहस्थ में, अधिक मासमें, रिक्ला तिथि में, और ग्रहण वगैरह कितनेही योगोंमें नहीं होते हैं परन्तु बिना मुहूर्त्तका पर्युषणादि धर्म कार्य तो चौमासेमें रिक्ता तिथि होने पर भी करनेमें आते हैं इसलिये मुहूतं निमितिक कार्य अधिक मासमें न होनेका दिखा कर के बिना मुहूर्त्त का पर्युषण पर्वका निषेध करना सो सर्वथा उत्सूत्र भाषण करके भोले जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे संसार वृद्धिका कारण है सो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं ।
और यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य्य अधिकमास में नहीं होनेका सातवें महाशयजी लिख दिखा करके पर्युषणा भी अधिक मासमें नहीं होनेका ठहराते हैं तब तो सिंहस्थ, सिंहराशीपर गुरुका आना होवे तब तेरह मासमें यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त निमित्त कार्य्य नहीं करनेमें आते हैं उसीकेही अनुसार सातवें महाशयजी को भी तेरह मास में पर्युषणादि धर्म कार्य्य नहीं करना चाहिये । यदि करते होवे तो फिर गच्छ कदाग्रही बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फँसानेका वृथा क्यों परिश्रम किया सो तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विवार लेवेंगे -- और मुहूर्त्त निमित्तिक संसारिक कार्योंके लिये तथा बिना मुहूर्त्तका धर्म कार्योंके लिये विशेष विस्तार से चौथे महाशय भी न्यायांभीनिधिजीके लेखकी समीक्षा में इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ १९४ से २०४ तक अच्छी तरह से छप गया है सो पढ़ने से सर्व निःसंदेह हो जावेगा ।
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