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लेना, देना, स्त्रियोंकों गर्भका होना और वृद्धि पामना, जन्मना, मरणा, और संसारिक व्यवहारमें व्यापारादि कृत्य करना, दुनीयामें रोगी, तथा निरोगी होना, और दान पुण्यादि भी करना, इत्यादि पाप और पुण्यके कार्य्य करना ही नही होता होगा तब तो मनुष्यादिकों कों अधिक मास अङ्गीकार नही करनेका ठहराना न्यायाम्भोनिधिजीका बन सके परन्तु जो ऊपरके कहे, पाप, पुण्यके, कार्य्यं दुनिया के लोग अधिक मासमें करते है इस लिये न्यायाम्भोनिधिजी का उपरका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या होनेसें पक्षपाती हठग्राहीके सिवाय आत्मार्थी बुद्धिजन कोई भी पुरुष मान्य नही कर सकते है इसको विशेष पाठकवर्ग विचारलेमा ;
और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीनें श्री आवश्यक निर्युक्लिकी गाथा लिखी है सो भी निर्युक्तिकार श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामिजी के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप और इस गाथा का सम्बन्ध तथा तात्पर्य्य समझे बिना भोले जीवोंकों संशयमें गेरे हैं इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम की समीक्षा में अच्छी तरहसे किया जावेगा सो पढ़के सर्वनिर्णय करलेना —— और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक निर्युक्तिकी गाथाका भावार्थ लिखा है कि ( हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुलित देखके तेरेको फूलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं ) इस लेख से अधिक मासमें कणियरको फूलना ठहराते अंबको नही फूलना ठहराकर कणियरको तुच्छ जातिकी और अंबको उत्तम जातिका ठहराते हैं सोभी इन्होंकी समझमें फेर है क्योंकि
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