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देखिये सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने शास्त्रविशारदकी पदवीको अङ्गीकार करी है तथापि पर्यषणा विचारके लेखकी आदिमेंही श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ने सम्बन्धी और अपनी २ परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकार्य कहने सम्बन्धी दो उत्सूत्रभाषण प्रथमही बालजीवोंको मिथ्यात्व में फँसानेवाले लिख दिये और पूर्वापरका कुछ भी विचार विवेक बुद्धिसें हृदय में नही किया इसलिये शास्त्रविशारद पदवीको भी लजाया - यह भी एक अलौकिक आश्चर्य्यकारक विद्वत्ताका नमूना है, खैर अब पर्युषणा विचारके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूं
पर्युषणा विचारका प्रथम पृष्ठके मध्य में लिखा है कि( पक्षपाती जन परस्पर निन्दादि अकृत्यों में प्रवर्तमान होकर सत्यधर्मको अवहेलना करते हैं ) इस लेखपर श्री मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीनें अपने कृत्य मुजब तथा अपने अन्तरगुण युक्त ही ऊपरका लेख में. सत्यही दर्शाया है क्योंकि खास आपही अपने पक्षकी कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्यबातोंको निषेध करके सत्यवातोंकी तथा सत्यबातों को मानने वालोंकी निन्दा करते हुवे कुयुक्तियों से बालजीवों को मिध्यात्वके भ्रम में गेरनेके लियेही पर्युषणा विचारके लेखमें उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अविसंवादी श्रीजैनशासन में विसंवादका झगड़ा बढ़ानेसे श्रीजैनशासनरूपी सत्यधर्म की अवहेलना करनेमें कुछ कम नही किया है सो
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