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निवासी महता पीताम्बरदास हाथीभाईको भेजा था उस पत्रके शालोंके पाठोंको छोड़करके और विद्रग्राही हो करके उस पत्र पर द्वेषबुद्धिसें छठे महाशयजीने वृथाही आक्षेप किया है और उनके साथ कितनीही निष्प्रयोजनको बातें लिखी है उसीका जबाब आगे (कठे महाशयजीके दूसरे गुजराती भाषाके लेखका जबाब छपेगा ) वहां लिखने में आवेंगा ;
और आगे फिर भी उठे महाशयजीनें लिखा है कि (बनारस प्रसिद्ध हुवा मुनि धर्म्मविजयजीके शिष्य मुनि विद्याविजयजीका, पर्युषणा विचार नामा लेख देख लेना ) इसपर भी मेरेको प्रथम इतनाही कहना है कि तीसरे महाशयजी श्रीविनयविजयजीनें श्रीसुखबोधिका वृतिमें पर्युषणा सम्बन्धी प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़ करके गच्छ कदाग्रह के हठवादसे उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनेक कुतर्कों करी है (जिसका निर्णय इसीही ग्रन्थके पृष्ठ सें १५० तक उपरमेंही छप चुका है ) उन्हीं कुतर्केौंको देखके सातमें महाशयजी श्रीधर्म्मविजयजी तथा उन्हके शिष्य विद्याविजयजी भी कदाग्रहकी परम्परामें पड़के उत्सूत्र भाषणकेही कुतर्केका संग्रह करके, शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय के विरुद्ध होकरके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर भोले जीवोंकों मिथ्यात्व में गेरनेके लिये अपना लेख प्रगट करा है (इसका जवाब आगे छपेगा ) उसीकोही गुजराती भाषामें जैन पत्रवालेने भी अपना संसार बढ़ानेके लिये अपने जैन पत्र में प्रगट करा है और उसी उत्सूत्र भाषणको कुलकको छठे महाशयजी आप भी देखनेका लिखकर उन्होको पुष्ट
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