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चणा करनी चाहिये इसीही श्रीकल्पसूत्रके मूळ पाठादिके अनुसार भोजिनपतिसूरीजीने समाचारीमें लिखा है किअधिक मास हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करना परन्तु असी दिने नही करना चाहिये इस लेखको देखके छठे महाशयजी लिखते हैं कि (यहोतो विवादास्पद है श्रीजिन पति सूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसें दफे मुजब किया है) इस पर मेरेको इतनाही कहना है कि श्रीकल्पसूत्रके पर्युषणा सम्बन्धी साधुसमाचारीका मूलपाठ इन्ही ग्रन्थ के पृष्ठ ४ । ५ में छपा है उसी मूलपाठके अनेक दफे मुजब श्रीजिनपति सूरिजीने समाचारीमें पूर्वोक्त हुकम जारी किया है सो श्रीजैन आगमानुसार है इसका निर्णय ऊपरमेंही कर दिखाया हैं इसलिये छठे महाशयजी आपको श्रीजिनपति सूरिजी के वाक्य में जो शङ्कारूपी मिथ्यात्वका भ्रम पड़ा है सो उपरका लेखको पढ़के निकालदो और मिथ्या पक्षको छोड़कर मत्य बातको ग्रहण करके, निःसन्देहरूपी सम्यक्त्व रत्नको प्राप्तकरो क्योंकि आपके विवादास्पदका निर्णय उपरमेही होगया है । और पृष्ठ १५७ से १६५ तक भी पहिले छपगया है ।
वड़ेही आश्चर्यकी बात है कि- श्रीवल्लभविजयजीको २२ । २३ वर्ष दीक्षा लिये हुवे और हर वर्षे गांम गांममें श्रीपर्युषण पर्व के व्याख्यानमें खुलासा पूर्वक व्याख्या सहित वंचाता हुवा श्री कल्पसूत्र के मूलपाठका तथा मूलपाठके व्याख्या का अर्थ भी उन्हकी समझमें नही आया होगा इसलिये ५० दिने पर्युषणा करनेका श्रीजिनपति सूरिजी का लेख पर शङ्का करी इससे मालूम होता है कि पर्युषणा सम्बन्धी
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