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[ २ ] और सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीको . तरको 'पर्युषणा विचार'नामा छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तक प्रगट हुई है जिसमें पञ्चाङ्गीके अनेक शालों के विरुद्ध तथा श्रीतीपंकर गाधरादि महाराजांकी और खास अपनेही गच्छके पूर्वाचायोंकी आशातना कारक और सत्य बातका निषेध करके अपने गच्छ कदाग्रहकी मिथ्या कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समझो बिना शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमे बिना सम्बन्धके
और अधूरे अधूरे पाठ दिखाके उलटे तात्पर्य्यसें उत्सूत्र भाषण रूप अनेक कुतों करके अपने पक्षके एकान्त आग्रहसे दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे है और अपनी विद्वत्ताकी हासी कराई है इसलिये अब में इस जगह भव्य जीवोंके मिथ्या त्वका भ्रम दूर होनेसे शुद्ध श्रद्धानरूपी सम्यक्त्वकी प्राप्तिके उपगारके लिये और विद्वत्ताके अभिमानसें उत्सूत्र भाषण करनेवालोंको हित शिक्षाके लिये पर्युषणा विचारके लेखकी समीक्षा करके दिखाता हूं;
यद्यपि पर्युषणा विचारको पुस्तकमें लेखक नाम विद्या विजयजीका छपा है परन्तु यह ग्रन्यकार उसीकी समीक्षा उन्हीके गुरुजी श्रीधर्मविजयजीके नामसें लिखता हैं जि. सका कारण इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ६६८ में छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये इस ग्रन्थकारको सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नामसेही समीक्षा लिखनी युक्त है सोही लिखता है जिसमें प्रथमही. पर्युषणा विचारके लेखकी आदिमें लिखा है कि .( आत्मकल्याणाभिलाषी भव्यजीव
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