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[ २ ] निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्योंको करते हैं) इस लेखको देखतेही मेरेको वड़ाही विचार उत्पन्न हुवा कि-सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी और उन्होंकी समुदायवाले साधुजी बहुत वर्षोंसें काशीमें रह करके अभ्यास करते हैं इसलिये विद्वान् कहलाते हैं परन्तु श्रीजैनशास्त्रोंका तात्पर्य उन्होंकी समझमें नही आया मालूम होता है क्योंकि आत्मार्थी प्राणियोंको निर्मूलता समूलता इन दोनुका विचार अवश्यमेव करना उचित है और निर्मूलता, याने-शास्त्रों के प्रमाण बिना गच्छ कदाग्रहके परम्पराकी जो मिथ्या बात होवे उसीको छोड़ देना चाहिये और समूलता, याने शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त कदाग्रह रहित गच्छ परम्पराकी जो सत्य बात होवे उसीको ग्रहण करना चाहिये और हेय, शेय, उपादेय, इन तीनो बातोंकी खास करके प्रथमही विचारने की आवश्यकता श्रीजैनशास्त्रों में खुलासा पूर्वक दर्शाई है, इसलिये निर्मूलता, हेय त्यागने योग्य होनेसें और समूलता, उपादेय ग्रहण करने योग्यहोनेसे दोनुं का विचार छोड़ देना कदापि नही हो सकता है
और आत्मकल्याणाभिलाषी निर्मूलता त्यागने योग्यका तथा समूलता ग्रहण करने योग्यका विचार जबतक नही करेगा तबतक उसीको श्रीजिनाजा विरुद्ध वर्त्तनेका अथवा श्रीजिनाजा मुजब वर्तनेका, बन्धका अथवा मोक्षका, मिथ्यात्वका अथवा सम्यक्त्वका, संसार वृद्धिका अथवा आत्मकल्याणके कार्योंका, भेदभावके निर्णयको प्राप्त नही हो सकेगा और जबतक ऊपरकी बातोंकी भिन्नताको नही
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