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"श्रीनिशीथ चूर्ण, श्रीवृहत्कल्पचूर्णिके, पाठ खुलासापूर्वक छप नये हैं सोही पंचकपरिहानीका कल्प, और कल्प स्थापना याने योग्य क्षेत्रके अभाव से पांच पांच दिनकी वृद्धिसें अज्ञातपर्युषणा स्थापन करे उसी रात्रिको वहां श्रीकल्पसूत्र के पठन करनेका कल्प, यह तीनों बातें वीर संम्वत् ९९३ ( विक्रम संम्वत् ५२३ ) में श्रीसंघकी आज्ञा विच्छेद हुई । तब चन्द्रसंवत्सर में और अभिवर्द्धितसंवत्सर में भी आषाढ़ चौमासी ५० दिने पर्युषणा करनेके कल्पकी मर्यादा रही तथा पचासवें दिनही श्रीकल्पसूत्रके पठन करनेके कल्पकी मर्यादा भी रही और उसी वर्षे श्रीमान् परम उपगारी श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीजैनशास्त्रोंको पुस्तका रूढमें किये उसी समय श्री शम्श्रुतस्कन्धसूत्र के आठमें अध्ययनको लिखती वरूत, जिन चरित्र तथा स्थिरावली और साधुसमाचारीका संग्रह करके अष्टम अध्ययनको संपूर्ण किया तब पांच पांच दिनको वृद्धिसें अभिवर्द्धित सम्वत्सर में चार पञ्चक वीश दिनका तथा चन्द्रसम्वत्सरमें दशपञ्चकका ( कल्प) व्यवहारको म लिखा और चन्द्रसं० अभिवर्द्धितसं० इन दोनु सम्वत्सरोंमें५० दिनका एकही नियम होनेसें पचास दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा करनेका नियम दिखाया है यह श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रका अष्टमाध्ययन श्रीकल्पसूत्रजीके नामसे जूदा भी प्रसिद्ध है उसी श्रीकल्पसूत्रका पर्युषणा सम्बन्धी पाठ भावार्थ सहित इन्ही ग्रन्थकी आदि पृष्ठ ४५६ तक छप चुका है सोही पाठार्थ सूर्य्यकी तरह प्रकाश करता है कि इस वर्त्तमानकाल में आबाढ़ चौमासीसे पचास दिन जहां पूरे होवे वहांही पर्यु
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