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[ २०८ ] कप्रियर तो सबीही मासोंमें फूलती है और आंबे श्री सखीही मासों में फूलके फलते है सो कलकत्ता, मुंबई वगैरह शहरोंके अनेक पुरुष जानते है। और कणियर तो उत्तम जातिकी और अंब तुच्छ जातिका कारण अपेक्षासे ठहरता है इसका विशेष खुलासा सातवे महाशयको समीक्षामें करने में आवेंगा और आगे फिर भी श्रीआवश्यक नियुक्ति की गाथा पर न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी चातुराई को प्रगट किवीहै कि (अब देखीये हे मित्र यह अच्छी जातिकी वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है)
इस उपरके लेखकी समीक्षा पाठकवर्गकों सुनाता हूं कि न्यायांभोनिधिजी अच्छी जातीकी वनस्पतिको अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होनेका ठहराते हैं इस न्यायानुसार तो न्यायांभोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले भी जो अच्छी जातिको बनस्पतिका अनुकरण करते होवेंगे तब तो अधिक मासको तुच्छही जानके खाना, पीना, देव दर्शन, गुरु वन्दन, विनय, भक्ति, ववादिकको वैयावच्च, धर्मोपदेशका व्याख्यान, व्रत, प्रत्याख्यान, देवसी, राई, पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कार्य करके अपनी आत्माकों पापकृत्योंसें आलोचित देखकरके हर्षसें प्रफुल्लित चित्तवाले मही होते होवेंगे तब तो उपरका लेख वनस्पति सम्बन्धीका लिखना ठीक हैं और उपर कहे सो कृत्योंसे आप हर्षित होते होवेंगे तब तो वनस्पतिकी बातको लिखके भोले जोवोंको श्रीजिनानारूपी रत्नसे गेरनेका कार्य करना तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका कारण है, और विद्वान् पुरुषोंके आगे हास्यका हेतु है सो बुद्धिजन पुरुष विचार लेना ;
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