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जरा भी विचार न आया क्योंकि विवाहादि कार्य्य तो चौमासा में और रिक्तातिथि में तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथि वगैरह कु वार कु नक्षत्र कु योगादि अनेक कारण योगों में निषेध किये हैं और श्रीपर्युषणादि धर्मकार्य्य तो विशेष करके चौमासामें रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथियोंमें कु वार कु नक्षत्र कु योगादि होते भी तिथि नियत पर्व करनेमें आते हैं इस बातका विवेक बुद्धिसे हृदयमें विचार किया होता तो विवाहादि काय्यका दृष्टान्तसे महान् उत्तम पर्युषणा पर्व करनेका निषेध के लिये कदापि लेखनी नही चलाते यह बातपाठकवर्गको अच्छी तरहसे विचारनी चाहिये ; --
और भी आठमी तरहसे सुन लीजिये कि पूर्वोक्क तीनों महाशयोंने और चौथे न्यायांभोनिधिजीनें भोले जीवों के आत्मसाधनका धर्म कायोंमें विघ्नकारक, अधिक मासको तुच्छ नपुंसकादिसें लिखा है सो निःकेवल श्रीतीर्थ- . डूर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि धर्मकाय्यौमें अधिक मास उत्तम श्रेष्ठ महान् पुरुषरूप है ( इसलिये अधिक मासमें धर्मकारar निषेध नही हो सकता है) इस बातका विशेष विस्तार दृष्टान्त सहित युक्ति के साथ अच्छी तरहसें सात में महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा में करनेमें आवेगा सो पढ़ने से सर्व निःसन्देह हो जावेगा ;
और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीनें अधिक मास को निषेध करनेके लिये जैन सिद्धान्तसमाचारीको पुस्तकके पृष्ठ ९२ की पंक्ति ११ से पृष्ठ ९३ की आदिमें अर्द्ध पंक्ति तक
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