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'तस्थसूरिं, तो सामाइयं करे ॥२९॥ काऊणय सामाइयं, इरियंपडि. कमियं,गमणमालोए । वंदित्तु सूरिमाइ, संझ्झायावस्सयं कुणइ ॥३०॥ - व्याख्या-सांप्रतमष्टदशं सत्कार द्वारमाह-ततो वैकालिकानंतर, विकालवेलायां अंतर्मुहूर्तरूपायां, तामेवव्यनक्ति अस्तमितेदि'वाकरे अर्द्धबिंबादवाक् इर्थः । पूर्वोक्तेन विधानेन पूजाकृत्वेतिशेषः । पुनवेदते जिनोत्तमान् प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधिना ॥ २८ ॥ अथैकोन विंशति वंदनकोपलक्षितमावश्यक द्वारमाह-ततस्तृतीय पूजा नंतरं श्रावकः पौषधशालांगत्वा यतनया प्रमार्टि, ततो नमस्कार पूर्वक व्यवहित तुशब्दस्यैवकारार्थ त्वात् स्थापयित्वैव तत्र सूर्ति स्थापना. चार्य, ततो विधिना सामायिकं करोति ॥ २९ ॥ अथ तत्र साधवोऽ. पिसंति श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौसाधुसमीपे गत्वाकिं करोति इत्याह-- साधुसाक्षिकं पुनः लामायिकं कृत्वा ईाप्रतिक्र. म्यागमनमालोचयेत् तत आचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले चावश्यकं करोति ॥ ३० ॥ इत्यादि"
३३-अब देखिये-ऊपरके सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठीमें श्रावकको सामायिक कैसे करना चाहिये? इस सवाल के जवाबमें सर्व शास्त्र कार महाराजोने इस प्रकार खुलासा पूर्वक लिखा है.
१-सामायिक करनेवाले राजादि धनवान व व्यवहारिक धन रहित ऐसे दो प्रकारके श्रावक बतलाये.
२- धन रहित श्रावकको भगवान् के मंदिरमें १, उपद्रवरहित एकांत जगहमें अपने घरमें २, साधु महाराजके पास ३, वा पौषध शालामे ४, ऐसे ४ स्थान सामायिक करनेके लिये बतलाये.
३ - जब श्रावकको संसारिक कार्योंसे निवृत्ति होवे [फुरसत मिले ] तब हरेक समय सामायिक करनेका बतलाया.
४-धर्म कार्यों में अनेक तरहके विघ्न आतेहैं, और उपयोगी वि. वेकवाले श्रावकको धर्मकार्यों के बिना समय मात्रभी खाली व्यर्थ ग. मामायोग्यनहीं है,इसलिये संसारिक कार्योंसे फुरसद मिलतही रस्ते चलने में यदि किसीके साथ लेने देने वगैरहसे कोईतरहका भयनहीं होवे तो अपने घरमें सामायिकलेकर पीछे गुरुपासजानेकाबतलाया.
५-जैसे उपवासादिकके पच्चख्खाण अपनेघरमें करलिये हो तो भी गुरुमहाराजकेपास जाकर फिर गुरु साक्षिसे उपवासादि पच्चक्याण करने आते हैं. तैसेही-श्रावकको अपने घरमे सामायिक ले
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