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विरुद्ध प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते की शास्त्र विरुद्ध और पूर्वाचायकी आज्ञाबाहिर कल्पितबात को छोड देना यही जिनाशाके आराधकभवभिरु निकटभव्य आत्मार्थियों को उचित है. ज्यादे क्या लिखें..
३९- कितने लोग शंका करते हैं, कि - पौषध, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यानादि कार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है, और सामायिकर्मे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पछिसे इरियावही कर नेका कहा है, उसका क्या कारण होना चाहिये ? इसका समाधान यह है कि - पौषध-प्रतिक्रमणादिक कार्य तो आत्माको निर्मलकरने के हेतुभूत क्रियारूप है सो मनकी स्थिरतासे होसकते हैं, इसलिये मनकी स्थिरता करनेकेलिये गमनागमनकी आलोचनारूप इरियावहीकर के पीछे इन कार्यों में प्रवृत्ति करें तो शांततापूर्वक उपयोग शुद्ध रहता है, इसलिये इन कार्यों में पहिले हरिया वही करनेका कहा है. मगर सामा. यिकको तो श्रीभगवती - आवश्यकादि आगमोंमें " आया खलु सामाइअं " इत्यादि पाठोंसे सामायिकको खास आत्मा कहा है, इसलिये आत्माकी स्थापना करने के लिये और आत्मा के साथ कर्मबंधन के हेतुरूप आते हुए आश्रवको रोकने के लिये प्रथम करेमिभंतेका पञ्चखाण क रमेका कहा है. पहिले आत्माकी स्थापनारूप और आश्रवनिरोधरूप सामायिकका उच्चारण होगया, तो, उसके बाद में पीछे आत्माको नि र्मल करने के लिये स्वाध्याय ध्यानादि कार्य करनेके लिये इरियावही करने की आवश्यकता हुई. इसलिये पीछेसे इरियावहीपूर्वक स्वाध्याय, ध्यानादिधर्मकार्य करने चाहिये, और आत्माकी स्थापनारूप व आभव निरोधरूप जबतक सामायिक के पच्चख्खाण न होंगे, तब तक एकवार तो क्या मगर हजारवार इरियावही करते ही रहेंगे तो भी आ भवनिरोध बिना निजआत्मगुण की प्राप्ति कभी नहीं होसकेगी, इसलिये सर्वशास्त्रोंकी आशामुजब पहिले आत्मा की स्थापनारूप सामायिकके पच्चरखाण करके पीछेसे आत्माकी शुद्धिके लिये इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि धर्मकार्य करने चाहिये. इस प्रकार सामायि कर्मे प्रथम करेमि भंते कहने संबंधी शास्त्रकारों के गंभीर आशयको स मझे बिना पौषधादि कार्यों की तरह सामायिक में भी प्रथम करोमिभंते का उच्चारण किये पहिलेसेही इरियावही स्थापन करने का आग्रह करना आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है ।
४० - कितनेक महाशय कहते हैं, कि श्रीनवकार मंत्र के पीछे इरिया
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