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[ ६१ ] जैन सिद्धान्त सनाचारी कारने ( यथा निशीथे दशवैकालिक वृत्तौच-इस वाक्यसें जैसे निशीथ सूत्र विषे और दशवैकालिक वृत्तिविषे है तैसे दिखाते हैं ) एसा लिखके भोले जीवोंको शास्त्रके नाम लिख दिखाये परन्तु शास्त्रकारका बनाया पाठ नही लिखा एसा करना आत्मार्थी उत्तम पुरुषको योग्य नही है और पाठका भावार्थ लिखे बाद पूर्वपक्ष उठायके उत्तर लिखा है जिसमें भी शास्त्रों के विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणरूप बिलकुल सर्वथा अनुचित लिख दिया है क्योंकि (चूलावाले पदार्थ के साथ प्रमाण का विचार करना होवे तो उस पदार्थसे चूला न्यारी नही गिनी जाती है ) इन अक्षरो करके चूलाकी गिनती भिन्न नही करनी करते है सो भी मिथ्या है, क्योंकि शास्त्रकारों ने चूला की गिनती भिन्न करके मूलके साथ मिलाइ है सोही दिखाते है कि-देखो जैसे श्रीमन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टि मन्त्रमें मूल पांचपदके ३५ अक्षर है तथा चार चूलिका के ३३ अक्षर हैं सो मूलके साथ मिलने से नवपदोसें चलिकायों सहित ६८ अक्षरका श्रीनवकार परमेष्टि मन्त्र कहा जाता है और श्रीदशवैकालिकजी मूलसूत्रके दश अध्ययन है तथा दो चलिका है जिसको भी शास्त्र कारोने अध्ययन रूप ही मान्य किवी है और नियुक्ति, चर्णि, अवचरि, वृहद्कृत्ति, लघुवृत्ति, शब्दार्थवृत्ति वगैरह सबी व्याख्याकारोंने जैसे दश अध्ययनोंका अनुक्रमे सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है तैसें ही दो चलिकारूप अध्ययनकी भी अनुक्रमणिका सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है और व्याख्यायों के श्लोकोंकी संख्या भी चलिकाके साथ सामिल करनेमें आती
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