________________
[ १३६ ] निषेध करनाही नही बनेगा,और जो निषेध को मंजर करोगे तब तो अनेक सूत्र, वृत्ति भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके न मानने वाले उत्थापक बनोंगे इसलिये जैसा तुम्हारी आत्माको हितकारी होवें वैसा पक्षपात छोड़कर ग्रहण करमा सोही सम्यक्त्वधारी सज्जन पुरुषों को उचित है मेरा तो धर्मबन्धुओंकी प्रीति में हितशिक्षारूप लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना किंवा न करना सो तो आपलोगों की खुसी की बात है ;
और आगे भी सुनो, तीनों महाशयोंने पाक्षिक क्षामणे अधिक तिथि होते भी “पन्नरसरहंदिवप्ताण", ऐसा कहके अधिक तिथि को नहीं गिनता है यह वाक्य लिखा है. इससे मालुम होता है कि तिथिओंकी हाणी वृद्धि की और पाक्षिक क्षामशा संबंधी जैन शास्त्रकारों का रहस्यके तात्पर्य्यको तीनों महाशयोंके समजमें नही आया दिखता है नही तो यह वाक्य कदापि नही लिखते इसका विशेष खुलामा श्रीधर्मविजयजीके नामसें पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की में समीक्षा आगे करूंगा वहाँ अच्छी तरह में तिथियों की हाणी वृद्धि संबंधी और पाक्षिक क्षामणा सम्बधी निर्णय लिखने में आवेगा-और नवकल्पि विहारका लिखा सो मासवद्धिके अभाव नतु पोषादिमास वृद्धि होते भी क्योंकि मासवृद्धि पौष तथा आषाढकी प्राचीन कालमें होती थी जब और वर्तमानमें भी वर्षाऋतुके सिवाय मास वृद्धि में अधिक मासकी गिनती करके अवश्यही दशकल्पि विहार होता है यह बात शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इस का भी विशेष निर्णय वहाँ ही करने में आवेगा-और
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com