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[ १९४ ] पर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ? और रनकोषाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है। यथा-'यात्राविवाहमराहन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि ॥ परिहर्तव्यानि बुधैः, सर्वाणि नपुंसके मासि ॥१॥ ___भावार्थः यात्रामण्डन, विवाहमण्डन, और भी शुभकार्य है सो भी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहनेसे अधिक मासमें त्यागने चाहीये । अब देखीये । इस लेखसे भी अधिक मासमें अति उत्तम पर्युषणापर्व करने की सङ्गति नही होसकती है।]
ऊपरके न्यायाम्भोनिधिजीका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं कि ( पृष्ठ १५५ में नारचन्द्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है ) इन अक्षरोंको लिखके जो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५९ में नारचन्द्र ज्योतिषका श्लोक है उसी को न्यायांनोनिधिजी निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि उसी श्लोकका मतलब सत्य है देखो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५९ में नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका ऐसा लोक है यथा--रविक्षेत्रगते जीवे, जीव क्षेत्रगते रयौ। दीक्षां स्थापनां चापि, प्रतिष्ठा च न कारयेत् ॥१॥ इस श्लोक लिखनेका तात्पर्य ऐसा है कि वादी शङ्का करता है कि अधिकमासमें शुभकार्य नही होते हैं तो फिर पर्युषणापर्व भी शुभकार्य अधिकमासमें कैसे होवे इस शङ्काका समाधान शुद्धसमाचारीकार पं० प्र० यतिजी श्री. रायचन्द्रजी ऐसे करते हैं कि अधिक मासके सिवाय भी 'रविक्षेत्रगते जीवे, याने सूर्यका क्षेत्रमें गुरुका जाना होवे
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