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[ १५० ] और आगे लिखा है कि ( यद्यपि जैन टिप्पणाके अनु सार श्रावण और भादव मासकी वृद्धिका अभाव है तो भी पौष और आषाढमास की तो वृद्धि होती थी अब हम आपको पूछते है कि जैन टिप्पणाके अनुसार जब पौष अथवा आषाढ़मासकी वृद्धि हुई तब संवच्छरीको अभ्भुठिओ सूत्रके पाठमें तेराणं मासाणं वीसं पखाणं वैसा पाठ कहोगें क्योंकि तिस वर्षमें तेरह मास तो अवश्य हो जायगें और जैन सिद्धान्तोंमें तो किसी भी स्थानमें वैसा नही लिखा है कि अधिक मास होवे तब तेरह मास और छवीश पक्ष संवच्छरीको कहना तो अब आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखको देखता हु तो न्यायाम्भीनिधिजीके बुद्धिकी चातुराईका वर्णन में नही कर सकता हूं क्योंकि जब शुद्ध समाचारी कारने जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें पौष और आषाढ़मासकी वृद्धि लिखी जिसको तो न्यायांभोनिधिजी ( अन जनोंको केवल भ्रमानेका ) ठहराते हैं और फिर आप भी शुद्ध समाचारीके मुजब उसी तरहसे पौष
और आषाढ़मासकी वृद्धि इस जगह मंजूर करते हैं यह न्यायांभोनिधिजीके अपूर्व विद्वत्ताका नमुना है क्योंकि दूसरेकी बातका खण्डन करना और उसी बातको आप मंजूर भी करलेना ऐसा अन्याय करना आत्मार्थियों को उचित नही हैं और क्षामणाके सम्बन्धमें लिखा है सो भी जैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना प्रत्यक्ष मिथ्या लिखके भोले जीवोंको संशयमें गेरे हैं क्योंकि जब जिस संवत्सर में अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्ष होगये तथा धर्मकर्म और संसारिक सावध कार्य्य तेरह मासके
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