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। १३ ] ४८ दिन भी आनायगे तब क्या आपको जिनामा भङ्गका दूषण नही होगा) इस उपरके लेखसे तो न्यायांभी निधिजीने प्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी
और अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योंकी आशातना करके और सबी उत्तम पुरुषोंको दूषित ठहरानेका कार्य करके नय गर्भित व्यवहारको और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको उत्यापन करके बाही अनर्थ कर दिया है क्योंकि जैसे सूत्र, पूर्णि, भाष्य, वृत्ति, प्रकरण, चरित्रादि अनेक शास्त्रों में एक नही किन्तु सैकड़ों बाते व्यवहार नयकी अपेक्षासें श्रीतीर्थ
रादि महाराज कहते हैं तैसेही शुद्ध समाचारी कारने भी व्यवहार नयसें पचास दिने पर्युषणा कही है और श्रीकल्प सूत्रजीके मूल पाठका (अन्तरा वियसै कप्पई) इस वाक्यसे पचास दिनके अन्दरमें पर्युषणा होवे तो कोई दूषण भी नही कहा है तथापि न्यायांभोनिधिजी न्यायके समुद्र होते श्री व्यवहार नयगर्भित प्रीजिनेश्वर भगवान्की व्याख्याका
और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठका सत्यापनके भयका जरा भी विचार न करते विद्वत्ताके अभिमानसें और पक्षपातके जोर से ४।४ दिन होनेका दिखाकर मिथ्या दूषण लगाते हैं सो कदापि नही बनता है,-याने सर्वथा उत्सूत्र भाषणरूप है ___और भी दूसरा सुनिये-जो तिथियोंके हानी वृद्धिको गिनतीसें कोई वर्षमैं भाद्रपद शुक्ल चौथ तक ४८ दिन होनेका लिखकर न्यायाम्भोनिधिजी शुद्धसमाचारी कारको दूषित ठहराते हैं इससे मालुम होता है कि तिथियोंके हानी सद्धिकी गिनतीसें भाद्रपद शुक्ल छठ (६) के दिन पूरे पचास दिन मान्य करके न्यावाम्भोनिधिजी पर्युषणा करते होवेंगे
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