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किये जाते हैं जिससे पुण्य और पाप तेरह मासके लगते हैं तो फिर बारह मासको आलोचना करके एक मासके पुण्यकायको अनुमोदना और पापकाय्योंकी आलोचना नही करना यह तो प्रत्यक्ष अन्याय अल्पबुद्धिवाला भी कोई मंजूर नही कर सकता है और जिन्होंके ज्ञानमें एक समय मात्र भी धर्म अथवा कर्म बंधके सिवाय वृथा नही जाता है ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान्के शास्त्रोंमें एक मासके धर्म और कर्मका न गिनना यह तो कभी नही हो सकता है इस लिये अधिक मास होनेसें अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्षादिकी आलोचना साम्बत्सरिमें करनी जैन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक है इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी आगे समीक्षा होगा उसमें शास्त्रोंके प्रमाण सहित अच्छीतरहसे करनेमें आवेगा सो पढ़के विशेष निर्णय कर लेना और आगे लिखा है कि-अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे किसी भी स्थानमें नही लिखा हैं यह वाक्य भी मिथ्या है क्योंकि अनेक जगह अधिकमास होनेसें तेरह मास कवीश पक्षके क्षामणे लिखे हैं जिसका भी वहांही आगे निर्णय होगा ॥-
और ( आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखपर तो मेरेकों इतना ही कहना उचित है कि शुद्धसमाचारी कारने तो सिर्फ अधिकमासको गिनती में सिद्ध करके पचास दिने पर्युषणा दिखानेका प्रयास किया था सो शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित होनेसें उन्हका प्रयास सफल हैं परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी हो करके अन्याय और शास्त्रोंके
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