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करनेवालों को मि षण ठहराये (हा अति खेदः) इससे विशेष अन्याय दूसरा श्री न्यायाम्भोनिधिजीका कौनसा होगा, किंसूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, निर्युक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्य्य सबी उत्तम पुरुष ठामठाम कहते हैं कि पर्युषणा पचास दिने करना कल्पे परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको भी उल्लङ्घन करके एकावनमें दिनकी करना न कल्पे इसलिये योग्यक्षेत्र न मिले तो जङ्गल में वृक्षनीचे भी पर्युषणा करलेना इतने पर भी कोई पचास दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन करके एकावनमें दिन पर्युषणा करे तो श्री जिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका लोपी होवें यह बात तो प्रायः जैन में प्रसिद्ध भी है सो भी मासवृद्धिके अभावकी जैनपञ्चाङ्ग की रीति वर्त्तनेकी थी परन्तु अब लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनी सोभी जिनाज्ञा मुजब है इसीही कारणसें श्रीजिनपतिसरिजीनें मासवृद्धि हो तोभी पचास दिने पर्युषणा कर लेनेका लिखा है सो सत्य है । और एकावन दिने भी पर्युषणा करने वाला जिनाज्ञाका लोपी होता है तो फिर ८० दिने पर्युषणा करने वाले क्या जिनाज्ञाके आराधक बन सकते हैं सो तो कदापि नही अर्थात् ८० दिने पर्युषणा करने वाले सर्वथा निश्चय करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञाके लोपी है इसलिये ८० दिने पर्युषणा करने वालों को श्रीजनपतिसूरिजीनें जिनाज्ञा के विराधक ठहराए सो भी सत्य है इसलिये श्रीजिनपतिसूरीजी महाराजका दोनु वाक्य निषेध नही हो सकते हैं इतने परक्षी
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