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[ १६५ ] शुद्धसमाचारी कारके वचन जिनामा मुजब सत्य होनेसें । गिर सका परन्तु वह लड़केका दृष्टान्त पीछाही फिरके श्री आत्मारामजी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपरही भाकर गिरता है क्योंकि खास श्रीआत्मारामजीनेही जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें अपनाही कार्यसिद्ध करने के लिये अपनाही मनन दिखाकर और अपनेही गच्छके अर्वाचीन (घोड़े कालके) पाठ दिखाये हैं सो भी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आनाके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण रूप हैं और खास श्री. तपगच्छकेही पूर्वाचार्योंके विरुद्धार्थ में अन्यकार महाराजका अभिप्रायःके विरुद्ध होकरके आगे पीछेका सम्बन्धको छोड़ कर अधूरे अधूरे पाठ लिखके फिर अर्थ भी उलटे उलटे किये है (इसका नमुना मात्र खुलासा संक्षिप्तसें आगे करनेमें आवेगा) इसलिये उपरोक्त लड़केका दृष्टान्त श्री आत्मारामनी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपर अवश्य ही बरोबर घटता है रसधास्त श्रीआत्मारामजीने शास्त्रकारोंके विरुद्धार्धमें जो जो बाते लिखी है सो तो सर्वही आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य होनेसे प्रमाणिक नही हो सकती है ;-और सातमी तरहसे आगे (श्रीवविजय जीके नामसे समीक्षा होगा उसमें विस्तारतें लिखने में आवेगा) वहांसे समझ लेना ;-अब आनेकी भी समीक्षा फरते हैं बैन सिद्वान्त समाधारीक पृष्ठ २८ पंक्ति११ वी से पृष्ठ ८६ की पंक्ति १९ बी तकका लेख नीचे मुजब जानो
[और पष्ठ १५६-१५७ में लिखा है, कि-"श्रावण और भाद्रव भासकी जैन सिद्धान्तको अपेक्षायें वृद्धिकाही अभाव है। केवल पौष आषाढ़ की रद्धि होती थी, और इस समय
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