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[ १६१ ] .. अब पांचमा और भी सुन लिजिये मोआत्मारामतीने तत्वनिर्णय प्रासादग्रन्य बनाया है सो छपा हुवा प्रसिद्ध हैं जिसके पृष्ठ १४५ में लिखा है कि[अब पक्षपात न होने में हेतु कहते हैपक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥३८॥ व्याख्या-मेरा कुछ श्रीमहावीरजीके विषे पक्षपात नही है कि जो कुछ महावीरजीने कहा है सोइ मैंने मानना है अन्यका कहा नही ; और कपिलादि मताधिपोंसे द्वेष नही है कि कपिलादिकोंका नही मानना किन्तु जिसका बचन शास्त्र युक्तिमत् अर्थात् युक्तिसें विरुद्ध नहीं है तिसका पचन ग्रहण करनेका मेरा निश्चय है ॥ ३८ ॥]
और इन्ही तत्वनिर्णय प्रासादकी उपोद्घात श्रीवल्लभ विजयजीने बनाई है जिसके पृष्ठ ३१ वे में लिखा है कि ( पक्षपात करना यह बुद्धिका फल नही है परन्तु तत्त्वका विचार करना यह बुद्धिका फल है “बुद्धः फलं तत्त्व विधारणं चेति वचनात् और तत्वावधार करके भी पक्षपातको छोड़ कर जो यथार्थ तत्वका भान होवे उसको अङ्गीकार करना चाहिये किन्तु यक्षपात करके अतत्त्वकाही आग्रह नही करना चाहिये यतः-आगमेन च युक्त्या च, योऽर्थः सममिगम्यते । परिव हेमवद्ग्राह्यः, पक्षपाताग्रहेण किम्. भावार्थः आगम (शास्त्र) और युक्ति के द्वारा जो अर्थ प्राप्त होवे उसको सोमेकं समान परीक्षा करके ग्रहण करना चाहि पक्षमालके आग्रह (8) क्या है )- ...... ... अब पाठकवर्ग श्रीभारमारामजीके और श्रीवनमः
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