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को दिखाता हु, - सम्वत् १९६६ का जोधपुरी चंडु पञ्चांग आषाढ़ शुक्ल ५ के दिन सूर्य उत्तरायनसे दक्षिणायन में हुवा था जिसमें मास वृद्धिसे दो श्रावण मास हुवे तब अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित चन्द्रमासको अपेक्षासे तिथियोंकी हाणी वृद्धि हो करके भी १८३ वें दिन मार्गशीर्ष शुक्ल ९ के दिन फिर भी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन में हुवा है सो पाठकवर्गके सामनेकी ही बात हैं, इसी तरहसे लौकिक पञ्चाग में हरेक अधिक मासोंकी गिनती सूर्यerent गिनती समझ लेना और सम्बत् १९६९में खास दो आपढ़ मास होवेगें तबभी सूर्यचारको गतिको देखके पाठकवर्ग प्रत्यक्ष निर्णय करलेना - और मेरेपास विक्रम सम्वत् १९०१ से लेकर सम्वत् १९९वें तकके अधिक मासोंका प्रमाण मौजूद है परन्तु ग्रन्थगौरव के कारणसे नहीं लिखता हु, इसलिये तीनों महाशय अधिक मास में सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो जैनशास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक और लौकिक पञ्चाङ्गकी रीति से भी प्रत्यक्ष मिथ्या हैं तथापि तीनों महाशयोंने भोले जीवोंकों अपने पक्ष में लानेके लिये ( आसाढ़ेमासे दुप्पया ) इस वाक्यको लिखके सूत्रकार गणधर महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध हो करके और फिरभी अधूरालिख दिया क्योंकि गणधर महाराज श्री - धर्मस्वामिजीनें श्रीउत्तराध्ययनजी सत्र के छवीश ( २६ ) वें अध्ययन में साधुसमाचारी सम्बन्धी पौरस्याधिकारे - असाढ़ मासे दुप्पया, पोसेमा से चठप्पया ॥ चित्तासोए मासु, तिपया हवइपोरसी ११ इत्यादि १२ १३ १४ १५ १६ गाथाओं से खुलासा पूर्वक व्याख्या मास वृद्धिके अभाव से स्वभाविक
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