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विचार न करते उलटा विरुद्धार्थ में तीनो महाशयोंने अपने स्वयं विसंवादी (पूर्वापरविरोधि ) वाक्यरूप अधिक मास कालचूला है सो दिनोंकी गिनतीमें नही आता है ऐसा लिख दिया, और विसंवादी वाक्यका विचार भी न किया । विसंवादी पुरुषका दुनियां में भी कोई भरोसा नही करता है तथा राजदरबार में भी विसंवादी पुरुष झूठा अप्रमाणिक होता है और जैनशास्त्रोंमें तो श्रावकको भी धर्म व्यवहार में विसंवादी वचन बोलनेका निषेध किया है। सोही दिखाते हैं श्रीआत्मारामजीने अज्ञानतिमिरभास्कर ग्रन्थके पृष्ठ २५६ में श्रावककों यथार्थ कहना अविसंवादी वचन धर्म व्यवहार में ॥ तथा श्रीधम्मसंग्रह वृत्तिके ग्रन्थ में भी यही बात लिखी है और श्रीधर्म्मरत्नप्रकरण वृत्ति में भी यही बात लिखी है सोही दिखाते हैं । श्रीधर्म रत्नप्रकरण वृत्ति गुजराती भाषा सहित श्रीपालीताणा में श्रीविद्याप्रसा रकवर्ग है जिसकी तरफसे छपके प्रसिद्ध हुवी है जिसके दूसरे भागमें पृष्ठ २१४ विषे यथा—
ऋजुप्रगुणं व्यवहरणमृजुव्यवहारो भावश्रावक लक्षणश्चतुर्द्धा चतुःप्रकारो भवति तद्यथा - यथार्थभणनमविसंवादि वचनं धर्मव्यवहारे ।
अर्थ-ऋजु एटले सरल चालवं ते ऋजुव्यवहार ते चार प्रकारनो छे जेमके एकतो यथार्थ भणन एटले अविसंवादी बोलवं ते धर्मनीबाबतमां ।
देखिये अब उपरमें श्रावककों भी धर्म व्यवहार में विसंवादीरूप मिथ्याभाषण बोलनेका जैन शास्त्रों में नही कहा है । तो फिर विद्वान् साधुजी होकर विसंवादी वाक्य
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