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[ ११७ ] प्राचीनकाल में जैन ज्योतिषके पञ्चाङ्गकी रीतिसे चंद्रमें पचासदिने भाद्रपद शुक्रपञ्चमीको और अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावणशुक्रपञ्चमीको प्रसिद्ध निश्चय पर्युषणा वार्षिक कृत्यों ते करने में आती थी जब जैन पञ्चाङ्गमें सिर्फ पौष तथा आषाढ़ मासको वृद्धि होती थी और मातोंकी वृद्धिका अभाव था जिसे वर्षाकाल के चारमा समें प्रावणादि कोई भी मासकी वृद्धि नही होती थी परन्तु अब वर्तमानकाल में जैनज्योतिषके पञ्चाङ्गका अभाव होनेसे लौकिक पञ्चाङ्ग में हरेक मामोंकी वृद्धि होती है जिससे वर्षाकालमें प्रावण भाद्रपदादि माप भी बढ़ने लगे [और अभिवर्द्धित संवत्सरमें योग्यक्षेत्राभावादिकारणे पाँव पाँच दिनको वृद्धि करते यावत् चारपञ्चके वीशदिने पर्युषणा करनेका तथा चंद्रसंवत्सरमें भी योग्यक्षेत्राभावादि कारणे पाँच पाँच दिनकी वृद्धि करते यावत् दशपञ्चके पर्युषणा करनेका कल्प कालानुसार श्रीसङ्घकी आज्ञासे विच्छेद हुआ है इसका विशेष विस्तार आगे करने में आवेगा]
इसलिये वर्तमानकालमें मासवृद्धि होवे तो भी आषाढ़ चौमासीसे पचास दिनकी गिनतीसे पर्युषणा करनेकी श्रीखर तरगच्छुके तथा श्रीतपगच्छादिके पूर्वज पूर्वाचार्योकी आज्ञा है जिप्तसे दो प्रावण हो तो दूजा श्रावणमें तथा दो भाद्रपद हो तो प्रथम भाद्रपदमें प्रसिद्ध पर्युषणा श्रीजिनेश्वर भग. वान्की तथा श्रीपूर्वाचार्योंकी आशाके आराधन करनेवाले मोक्षार्थी प्राणी अवश्य करते हैं इसलिये दो प्रावण तथा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनमास होनेसे पांचमासके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होता है जिसमें पचासदिने
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