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यावत् सम्यग् दर्शन ते भ्रष्टको देखना भी योग्य नही है इत्यादि कहा तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विचार रों कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंनें चंद्रमासकी अपेक्षा से जो अधिकमासको वृद्धि होती है जिसको गिनती में प्रमाण किया है, तथापि श्रीतपगच्छके तीनो महाशय तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धराते भी निषेध करते हैं जिन्होंका त्याग, वैराग्य, संयम और जिनाशाके शुद्ध श्रद्धाका ' आराधकपना कैसे बनेगा और शुद्ध परूपनाके बदले प्रत्यक्ष अनेक शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध, उत्सूत्र भाषणका क्या फल प्राप्त करेंगे सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना
और श्रीधर्म्मसागरजी श्रीजय विजयजी और श्रीविनयविजय जी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् हो करके भी गच्छ कदाग्रहका पक्षपातसे श्रीतीथंङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध परूपनाके फल विपाकका बिलकुल भय म करते सर्वथा प्रकार से अधिक मासकी गिनती निषेध कर दिवी तथा औरभी अपने लिखे वाक्यका भी क्या अर्थ भूल गये सो अधिक arसकी गिनती निषेध करते अटके नहीं क्योंकि इन तीनो महाशयों के लिखे वाक्य से भी अधिक मास गिनती में सिद्ध होता है सोही दिखाते हैं (अभिवर्द्धित वर्षे चतुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्या दिनेर्वयमत्र स्थिताः स्म) यह वाक्य तीनो महाशयोंने लिखा है इस वाक्यमें अनिवर्द्धित वर्ष ( संवतप्तर) लिखा है सो अभिवर्द्धित वर्ष मास वृद्धि होनेसे तेरह चन्द्रमासोंकी गिनती से होता है इसमें अधिक मासकी गिनती खुलासा पूर्वक प्रमाण होती है और अधिकमासको freats बिना अभिवर्द्धित नाम संवत्सर नहीं बनता है
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