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[ ८२ ] बाकि अधिक मासको गिनती नही करनेसे बारह चन्द्रभासोंसे चन्द्र संवत्सर होता है. परन्तु अभिवहित नाम नही बनेगा जब अधिक मासकी गिनती होगा तब ही तेरह चन्द्रमासांसे अभिवति नाम संवत्सर बनेगा जिसका विस्तार उपर लिख आये हैं इस लिये अधिक मासकी गिनती तीनो महाशयोंके वाक्यसै सिद्ध प्रत्यक्ष पने होती है और फिरभी इन तीनो महाशयोंने ( जैन टिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्त च आषाढ़ो एव वईते नान्येमासाः तच्चाधुना सम्यग न ज्ञायते ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा सङ्गतेति सुद्धाः ) यह भी अक्षर लिखे हैं सो इन अक्षरोंसे भी सूर्यवत् · प्रकाशकी तरह प्रगट दिखाव होता है कि जैन टिप्पनामें पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी सो टिप्पना इस कालमें नही हैं इस लिये पचास दिने पर्युषणा करना योग्य है यह श्रीतपगच्छके पूर्वज शुजाचार्यों का कहना है सो बातभी सत्य है क्योंकि इन तीनो महाशयोंके परमपूज्य श्रीतपगच्छके प्रभाविक श्रीकुलमराहन सूरिजीने भी लिखी है जिसका पाठ इसी पुस्तकके नवौ (९) पृष्ठमें छप गया हैं. अधिक मासकी गिनती अनेक जैन शास्त्रोंसे तथा उपरके वाक्यसे भी सिद्ध होती है और पचास दिने पर्यं. षणा करना अपने पूर्वजोंकी आज्ञासे तीनो महाशय लिखते हैं जिससे पाठकवर्ग विचार करे तो शीघ्र ही प्रत्यक्ष मालुम हो सकता है कि वर्तमानमें दो श्रावण होतो दूजा श्रावणमें अथवा दो भाद्रव होतो भी प्रथम भाद्रवमें पचास दिनांकी गिनतीसे ही पर्युषणा करना चाहिये यह न्याय स्वयं सिद्ध है
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