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है एसे ही श्रीआचारांगजीकी चूलिका, श्रीव्यवहार सूत्रजी की चूलिका, श्रीमहानिशीथसूत्रकी चूलिका वगैरह सबी चलिकायोंकी गिनती शास्त्रोंके साथ श्लोकोंकी संख्या में आती है तथा व्याख्यानावप्तरमें भी चूलिका साथ सूत्र वांचने में आता है। परन्तु चूलिकाकी गिनती नही करनी एसे तो किसी भी जैन शास्त्र में नही लिखा हैं इस लिये जो जो चलावाले पदार्थ है उसीके प्रमाणका विचार और गिनतीका व्यवहारमें चलाका प्रमाण सहित गिना जाता हैं
और क्षेत्र चलाके विषय में जैन सिद्धान्त समावारीकारने लिखा है कि ( जैसे मेरुका लक्षयोजनका प्रमाण कहेंगें तब चलिकाका प्रमाण भिन्न नही गिनेंगे ) इन अक्षरोंको लिखके मेरुपर्वतके उपर जो चालीस योजनके प्रमाणवाली चलिका है। जिसके प्रमाणकी गिणती मेरुसे भिन्न नही कहते हैं सोभी अनुचित है क्योंकि शास्त्रोंमें मेरुके लक्षयोजनका प्रमाण तथा चूलिकाका चालीस योजनका प्रमाण खुलासा पूर्वक भिन्न कहा हैं सोही दिखाते हैं कि-खास जैन सिद्धान्त समाचारीकारके ही परम पूज्य श्रीरत्नशेखर सूरिजीनें लघुक्षेत्र समास नामा ग्रन्थ बनाया हैं सो गुजराती भाषा सहित श्रीमुंबईवाला श्रावक भीमसिंहमाणक की तरफसे श्रीप्रकरण रत्नाकरका चौथाभागमें छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ २३४ में मेरुकी चूलिकाके सम्बन्धवाली ११३ भी गाथा भाषा सहित नीचे मुजब जानो यथा-- ___ तदुवरि चालीसुच्चा, वडामूलुवरि बारचउपिहुला वेरुलिया वरचूला, सिरिभवण प्रमाण चेइहरा ॥ ११३ ॥
अर्थः-तदुपरि के, ते लाखयोजन प्रमाणना उंचा
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