________________
( १ )
यदा सप्तत्या अहोरात्रेण चातुर्मासिकंप्रतिक्रमणं विहितं तद मन्तरं प्रत्यूष विहर्त्तव्यं कारणान्तराभावे । तत्सद्भावे तु मार्गशीर्षेणापि सह आषाढ़ मासेनापि च सह वरमासा इति : यत् पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिन विंशत्या पर्युषितव्यमिति, उच्यते तत्सिद्धान्त टिप्पनानुसारेण तत्र हि प्रायो युगमध्ये पावो युगान्ते चाषाएववर्द्धते तानि च माधुना सम्यग् ज्ञायन्ते अता ठोकिक टिप्पनानुसारेण यो मासो यत्र वर्द्धते स तत्रैव गणयितव्यः नान्याकल्पनाकार्य्या दृष्टं परित्यज्याऽदृष्टकल्पनानसङ्गता आन्नाया उपरिज्ञानात्तु कल्पनापि न निश्चयतव्येति सांप्रतं तु कालकाचार्थ्याचरणाच्चतुर्थ्यामपि पर्युषणां विदधति इत्यादि ।
देखिये ऊपर के पाठ में श्रीसमवायाङ्गजी यथा तद्वृत्ति मौर श्रीदशाश्रुतस्कन्ध सूत्रकी नियुक्ति तथा उसीकी वर्णिके पाठी के प्रमाण पूर्वक दिनोंकी गिनती आषाढ़ चौमासी ५० वें दिन मासवृद्धिके अभाव से चन्द्रसंवत्सर में निश्चय निवास पूर्वक ज्ञात पर्युषणा में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेका प्रगटपने खुलासे दिखाया है और योग्य क्षेत्रके अभाव से ५० वें दिनकी रात्रिको भी उल्लंघन न करते हुए जंगल में वृक्ष मीचे पर्युषणा कर लेने का भी खुलासा हिडाई और चन्द्रसंवत्सर में ५० दिने पर्युषणा करने से कार्त्तिक तक स्वभावसेही 90 दिन रहते हैं सो जघन्यकालावग्रह कहा जाता है और प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पौष वा आषाढकी वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धितसंवत्सर में आषाढ़ चौनासीसे बीस दिने श्रावण सुदीमें ज्ञात पर्युषणा करने में आती थी तब भी पर्युषण के पिछाड़ी कार्त्तिक तक स्वभावसेही
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com