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[११०] तदुपघातिक कर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धस्तां जनयति"
ऐसा कहकर सामान्यतासे सामायिक, चउवीसत्थो,वंदन, प्र. तिक्रमण, काउसग्ग आदि कर्तव्योंका फलबतलायाहै.मगर वहां सामायिककरनेकी विधिमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते उच्चारण करनेका नहीं बतलाया. इसलिये उत्तराध्ययन सूत्रवृत्तिके नामसे प्र. थम इरियावही पीछे करेमिभते स्थापन करनेवालोकी बडीभूल है.
४४-अब आत्मार्थी तत्त्वग्राही पाठकगणसे मैरा यही करनाहै,किश्रीमहानिशीथसूत्रका उद्धार श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजनेकियाहै । श्रीदशवकालिकसूत्रचूलिकाकी बडीटीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है,तथा आवश्यक सूत्रकी बडी टीकाभो इन्हीं महाराजने बनाया है। श्रावक प्रज्ञप्तिकी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनायाहै, अब देखो-आव. श्यक बडीटीकामे व श्रावकप्रज्ञप्तिटीकामे सामायिक विधिमे प्रथम करोमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक पाठ है तथा महा. निशीथसूत्रके तीसरेअध्ययनमें उपधान चैत्यवंदनसंबंधी इरियावही करनेका पाठहै, और दशवैकालिक चूलिकाकीटीकामें साधुके गमनागमनसंबंधी इरियावही करके स्वाध्यायादि करनेकापाठहै, इसलिये भिन्नर अपेक्षावाले इन शास्त्रपाठोके आपसमें किसीतरहकाभी विसंवाद नहीं है, और विसंवादी शास्त्रोको व विसंवादी कथन करनेवालोको शास्त्रों में मिथ्यात्वी कहे हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंकों व पूर्वाचार्योंको अविसंवादी कहने में आतेहैं, इसी तरह श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजभी आविसंवादी होनेसे इन्हीं महाराजके बनाये ऊपरके सर्व शास्त्रोको अविसंवादी कहने आतेहैं, और श्रीआवश्यकसूत्रकी बड़ी टीका व श्रावकप्रशप्ति टीकामें सामायिक करने संबंधी प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका पाठ मौजूद होने परभी महानिशीथ, दशवकालिक चूलिकाको टीकाके भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठों. का उलटा २ अर्थकरके शास्त्रकारोके अभिप्रायविरुद्ध होकर सामा. यिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेसे ऊपरके शास्त्रपाठोमे और इन्हीं शास्त्रोंके करनेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजके वचनों में एकही विषय संबंधी आपसमें पूर्वापर विसंवादरूप दूषणआताह,मगर इन्हीं शास्त्रपाठोमे व इन्हींमहाराजके कथनमें किसी प्रकारसेभी कभी विसंवादका दूषण नहीं आ सकता. यह तो सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करनेके आग्रह करनेवालोकीही पूर्ण अज्ञानताहै, कि-ऐसे अविसंवादी आप्त
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