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( १७ ) पर्युषणा होती थी परन्तु जैन पंचांगके अभावसे वर्तमानकालमेंझी लौकिक पंचाङ्गानुसार अधिक मास होनेसे उसीकी गितनी पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रम पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्योंकी मर्यादा है ऐसा उपरोक्त पाठासे खुलासा दिखता है तथापि उपरोक्त पाठायाँका भावार्थ बदला करके मासवृद्धिके अभावसे ५० दिने भाद्र. पदमें पर्युषणा कही है उसीकोही वर्तमानमें मासवृद्धि दो प्रावण होते भी ८० दिने जिनाज्ञा विरुद्धका भय न करते हुए भाद्रपदमें ठहरानेका वृथा आग्रह करते हैं सो क्या लाभ प्राप्त करेंगे। तथा उपरोक्त व्याख्याओंमें "अभिवर्द्धित वर्षे" इस शब्दसे श्रीखरतरगच्छके श्रीसमय सुंदरजी तथा श्रीसपगच्छके श्रीकुलमंडनसूरिजी श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी इन सबी महाशयोंके लिखे वाक्यसे अधिक मासकी गिनती प्रत्यक्षपने सिद्ध है इसलिये अधिकमासकी गिनती निषेध भी नहीं हो सकती है तथापि कोई निषेध करेगा तो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे श्रीअनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचायोंकी और अपनेही गच्छके पूर्वजोंकी आज्ञा उल्लंघनका दूषण उगेगा क्योंकि श्रीअनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा चायने तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वजाने अधिकमासके दिनोंकी गिनती पूर्वक तेरह मासोंका अभिवर्द्धितसंवत्सर कहाहै इसका विस्तार आगे शास्त्रों के पाठायों सहित तथा युक्ति पूर्वक लिखने में आवेगा
और भी प्रोपाश्चंद्रगच्छ के श्रीबलर्षिजी कृत श्रीदशात स्कन्ध सूत्रको बत्तिके पष्ठ ९१२ से १९५ तकका पर्युषणा सबन्दी पाठ यहां दिखाता हूं तपाच पाठ :
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