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मी एवं वुञ्चई, जहाणं ससुत्तत्थोभयं पंचमंगलं थिरपरिचिअ काउणं तओ इरियावहियं अझीए त्ति से भयवं कयराए विहिए तं इरिया वहीयाए अझीए गोयमा जहाणं पंचमंगलं महासुयसंधं. से भयवंइरियावहाय महि झित्ताणं, तओ किंमहिझे गोयमा सक्कत्थयाइयं चेइयवंद विहाणं, णवरं सक्कत्थयं एगट्टम बत्तीसाए आयंबिले हिं इत्यादि
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इस पाठ अशुभकमाँके क्षयके लिये तथा अपनी आत्माको हितकारी होवे वैसे चैत्यवंदनादि करने चाहिये, इसमें उपयोगयुक्त होनेले उत्कृष्टचित्तकी समाधी होती है, इसलिये गमनागमनकी आलो चनारूप इरियावही किये बिना चैत्यवंदन, स्वाध्याय, ध्यानादिकरना नहीं कल्पता है, अतएव चैत्यवंदनकरनेके लिये पहिले पंचपरमेष्ठि नवकार मंत्र के उपधान वहन करने चाहिये उसके बाद इरियावही, नमुत्थुणं, अरिहंत चेद्रयाणं वगैरह के आयंबिल उपवासादि पूर्वक उपधाम वहन करने चाहिये.
देखिये ऊपर के पाठ में उपधान वहन करनेके अधिकार मैं विधिसहित उपयोगयुक्त चैत्यवंदन-स्वाध्याय- ध्यानादिकार्य करने संबंधी पहिले इरियावही करके पीछेले चैत्यवंदनादिकरें, ऐसा खुलास से बतलाया है. इसलिये ऊपरका पाठ पौषधग्राही उपधान वहन करनेवालों संबंधी है, और पौषध ( पौषह ) करनेवालों को तो हरियावही किये बिना चैत्यवंदन, स्वाध्याय- पढना गुणना, तथा ध्यानादि नोकरवालीफेरना वगैरह धर्मकार्यकरना नहीं कल्पता है, इसलि ये यहबात तो अभीवर्तमान में भी सर्वगच्छवाले उसी मुजब करते हैं. मगर इस पाठ में सामायिक के अधिकार में, प्रथम इरियाबही किये बाद पीछेसे करेमि भंतेका उच्चारणकरने संबंधी कुछभी अधिकारका गंधभी नहींहैं. जिसपर भी सूत्रकारमहाराजों के अभिप्रायविरुद्ध होकर आगे पीछे उपधानके संबंधवाले संपूर्णपाठको छोड़कर बीच मेसे थोडासा अधूरापाठ लिखकर उसकाभी अपना मनमाना अर्थकरके सामायिक करने संबंधी मथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहराना. सो ऊपर मुजब आवश्यक चूर्णि वगैरह अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे सर्वथा उत्सूत्रप्ररूपणारूपही है ।
१० - श्रीशवेकालिकसूत्रकी दूसरी चूलिकाकी ७ वी गाथाकी टीकामें साधुके गमनागमनादि कारणले इरियावही करनेका कहा है, सो पाठभी यहांपर बतलाता हूं. देखो :
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