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[२] ऐसा उस चैत्यवासीनी बुढियाकाक्रोधसहित अनुचितवःवको दे. सकर यद्यपि श्रावक लोग उसको दरवाजेसे हटाकर मंदिर में दर्शन करनेको जा सकतेथे, तोभी स्त्रीकेसाथ वैसा करना योग्य न समझ कर महाराजकेसाथ पीछे अपने स्थानपर चले आये. इत्यादि 'गणधरसार्धशतक' बृहवृत्ति वगैरहमे श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजका चरित्रसंबंधी पूर्वापरके आगे पीछेके प्रसंगको, व चितोड निवासी चैत्यवासियों के विरोधभावको, विवेकीबुद्धिसे समझेबिनाही अथवा तो जानबुसकर आगे पीछेका संबंधको छुपाकरके कितनेकलोग कह. तेहैं, कि- ' श्रीजिनवल्लभसूरिजीने चितोडनगरमें छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणाकरी उसको बुढियाने मना किया तो भी माना न. ही. ' ऐसा कहनेवाले अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं, क्योंकि देखोवो चैत्यवासीनी बुढिया अज्ञानी आगमोके भावार्थको नहीं जाननेवालीथी, व शिथिलाचारी होकर अपनी आजीविकाके लिये चैत्य. में रहकरके चैत्यकी पैदाससे अपना गुजरानकरतीथी. और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्य में [ मंदिरमें ] रहनेका, व उसकी पैदाससे अपनी आजीविका चलानेका निषेध करनेवाले, तथा शास्त्रा. नुसार व्यवहार करनेवाले शुद्ध संयमी थे. इसलिये चितोडके सब चैत्यवासियोंकी तरह वह बुढियाभी महाराजसे द्वेष धारण करने वालीथी और बुढियाके जन्मभरमें भी उसके सामने कोई भी शुद्ध संयमी चैत्यवासका निषेद्ध करनेवाला चितोड नगरमे पहिले कभी नहीं आयाथा. उससेही शास्त्रानुसार विधि मार्गकी बातोंकी उसको मालूम नहींथी. इसलिये इनमहाराजका आगमानुसार छठे कल्याण. कका कथनभी उसबुढीयाको नवीन मालूम पडा. और अपने चैत्य. वासकी तथा उससे अपनी आजीविका चलानेकी बातकाखंडन कर. नेवाला तथा अपनी शिथिलाचारकी भूलोको प्रकटकरनेवाला,ऐसा अपना विरोधी अपने ताबेके मंदिर में अपने सामने चला आवे सो उस बुढियासे सहन नहीं होसका. इसलिये क्रोधसे मंदिरके दर. वाजे आडी पड गई, सो उस निर्विवेकी अज्ञानी क्रोधसे विरोध भाव धारण करने वाली बुढिया के कहनेसे प्रत्यक्ष आगम प्रमाण मौजूद होनेसे छठा कल्याणक नवीन नहीं ठहर सकता.जिस. परभी उस बुढियाके अज्ञानताजनक वचनोंका भावार्थ समझे बिनाही उस चैत्यवासीनी बुढियाकी परंपरावाले अभी वर्तमानमेंभी कितनेक आग्रही जन अज्ञानतासे बुढियाकी तरह द्वेष बुद्धिसे, छठे कल्या
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