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ज्ञानीपुरुष में गर्व नहीं होता। 'मैं कर रहा हूँ, मैंने किया' वह सारा गर्व है। स्वरूप में आ जाएगा तो गर्व मिट जाएगा। 'मैंने किया' ऐसा होते ही अंदर मीठा गर्वरस उत्पन्न हुए बिना रहता ही नहीं। 'मैं था उसी से हुआ' वही गर्वरस है। जगत् में गर्वरस जितना मीठा रस किसी और चीज़ में नहीं होता।
गर्वरस किस तरह जाएगा? वह विज्ञान जानने से जाएगा। कौन सा विज्ञान? 'यह कौन कर रहा है' वह जान लेगा तो खुद नहीं कर रहा है वह समझ में आ जाएगा और फिर 'मैं कर रहा हूँ' का गर्वरस उत्पन्न ही नहीं होगा। ज्ञानीपुरुष को किसी भी क्रिया में ऐसा नहीं होता कि 'मैंने किया।'
'मैं जानता हूँ' का केफ चढ़ना, वह तो भयंकर जोखिम है ! ज्ञानी के बिना, यह रोग कभी भी नहीं जा सकता। यह ज़हर से भी अधिक भयंकर है। अहम् रखना हो तो 'मैं कुछ भी नहीं जानता' का रखना।
सामने वाला प्रशंसा करे और उससे पूरे दिन मस्ती में रहे तो वह सब प्रशंसा है और गर्वरस तो 'मैंने कितना अच्छा किया!' 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा अहंकार गर्वरस चखने की आदत डाल देता है।
गर्वरस नहीं चखने के लिए क्या करना चाहिए? कुछ भी नहीं करना है। जिसे स्वरूपज्ञान प्राप्त हो चुका है, उसे सिर्फ यह ज्ञान जानने की ही ज़रूरत है कि 'गर्वरस को चखने वाला मैं नहीं हूँ और मैं तो शुद्धात्मा हूँ' वह लक्ष (जागृति) में रखना चाहिए।
ज्ञानीपुरुष गारवता (संसारी सुख की ठंडक में पड़े रहना) में नहीं होते। गारवता अर्थात् जिस प्रकार गरमी के मौसम में कीचड़ में बैठी हुई भैंस को कीचड़ की ठंडक कीचड़ में से बाहर नहीं निकलने देती, उसी प्रकार भौतिक सुख में पड़े हुए लोगों को रस-गारवता, रिद्धि-सिद्ध गारवता, शास्त्र-गारवता संसार में से बाहर नहीं निकलने देती। वह तो ज्ञानीपुरुष करुणा करके बाहर निकालें, तब निकला जा सकता है।
ज्ञानीपुरुष की दी हुई समझ से उसे समझ में आता है कि
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