________________
भय-भैरव के राज्य में
कभी-कभी एक विचित्र अवबोधन होता है। देखता हूँ कि कोई वर्द्धमान है, और वह अपनी जगह पर है। फिर एक महावीर है, और वह अपनी धुरी पर गतिमान है। तब यह जो तीसरा मैं हूँ, यह कौन है ? जो इन दोनों को अलग से देखता है। शायद इन दोनों के बाद जो बच रहता है, वही तो मैं हूँ। मेरा कोई नाम नहीं, धाम नहीं, मान नहीं, अनुमान नहीं, ज्ञान नहीं, अज्ञान नहीं । अनाम, अकोई, जिसकी कोई संज्ञा नहीं, परिभाषा नहीं। एक शून्य जो बस देखता है : अपने को और सर्व को। एक संचेतना, स्व की पर की : फिर भी इन दोनों से अतीत । अभेद। मात्र एक अनुभूति । और ऐसा मैं देख रहा हूँ :
-कि वर्द्धमान चलते-चलते जाने किस अपने ही भीतर की झाड़ी में उलझ गया है। असंप्रज्ञात जाने किस पूर्व जन्म की ग्रंथी में अटक कर, अटपटा-सा हो गया है ...।
...पर उससे आगे बेखटक चला जा रहा है महावीर। जैसे मंदराचल चल रहा है। शीत लेश्या वाला चंद्रमंडल पृथ्वी पर अनायास विहार कर रहा है। तप और तेज के इस महासूर्य को देखते आँखों के पलक ढलक जाते हैं। मेरु के समान यह निश्चल है, फिर भी जल की तरह प्रवहमान है। पृथ्वी के समान सारे स्पर्शों को सहने वाला है। गजेन्द्र की तरह धीरगामी है : सिंह की तरह अकुतोभय है। घृत-हव्यादि से होमे हुए अग्नि के समान, मिथ्या-दृष्टियों के लिए अदृश्य है । गेंडे के एक शृंग के समान एकाकी है। प्रचंड सांढ़ के समान महाबलशाली है। कूर्म की तरह अपनी इन्द्रियों को गोपन रखने वाला है। सर्प के समान एकाग्र दृष्टि रखकर विचरता है। शंख की तरह यह निरंजन है। सुवर्ण की तरह यह जातरूप सुन्दर, और निर्लेप है। पक्षी की तरह यह मुक्त है। जीव के समान यह अस्खलित गतिवाला है।
. . ऐसा अप्रमत्त है यह, जैसे भारंड पक्षी हो कोई । आकाश सरीखा यह निराश्रय है। मृग की तरह सेवक रहित, फिर भी अदीन और अकिंचन है। पिता के समान जीवों की रक्षा में निरन्तर तत्पर है। कमलदल की तरह अस्पृष्ट है, फिर भी अपने मार्दव से सब को मदु कर देता है। शत्रु और
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org