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'आयुष्यमान, तुम तो जन्मजात प्रजापति हो । क्षत्रिय-पुत्र हो । अपनी और सर्वकी रक्षा ही तुम्हारा जीवन-व्रत है । यह कैसे सम्भव है कि यहाँ तुम्हारे रहते, तुम्हारे इन तापस बन्धुओं को कष्ट हो । उनकी साधना में विघ्न आये। जब तक जीवन है, शरीर है, और इस धरती के साधनों पर हम जीवन धारण करते हैं, तब तक वर्जन- ताड़न द्वारा प्रकृति और पशुओं के विघ्न से बचाव तो करना ही होगा । सुखपूर्वक यहाँ वर्षावास करो । पर अपने को और सबको निर्बाध रक्खोगे, ऐसी आशा है ।'
स्वभाव के अनुसार, कुलपति की ओर एकटक निहार कर, मैंने मुस्कुरा भर दिया । और चुप रहा । कुलपति मानो आश्वस्त होकर चले गये ।
मैंने मन ही मन सोचा, मुझे तो कहीं कोई बाधा दीखती नहीं । सर्वत्र अपने को सुखी और निर्बाध ही अनुभव करता हूँ। पर यदि मेरी स्वाभाविक चर्या के कारण इन आश्रमवासियों का जीवन बाधित हो गया है, तो मेरा यहाँ से विहार कर जाना ही उचित है ।
* जहाँ रहने से किसी को अप्रीति हो, उस स्थान पर भविष्य में कभी नहीं विहरूँगा ।
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जब तक अरिहन्त न हो जाऊँ, अपने मौन को अटूट रक्खूंगा । चुप रहूँगा ।
* नित्य कायोत्सर्ग की अवस्था में रहूँगा ।
* निर्ग्रथ स्वाधीन दिगम्बर हूँ, अपना स्वामी आप हूँ, सो अब किसी के वैयक्तिक स्वामित्व के स्थान में, पराधीन आश्रय ग्रहण नहीं करूँगा ।
* अब से किसी के भी प्रति बाह्य विनय का उपचार न करूँगा । स्वयम् ही विनयमूर्ति हो रहूँगा
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• और अगले दिन प्रातः काल उषा बेला में ही मैं अपने अलक्ष्य यात्रा पथ पर विहार कर गया ।
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